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Anish Garg

Others

4  

Anish Garg

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वो बूढ़ी निशानी

वो बूढ़ी निशानी

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बहुत याद आती है

वो घर की बूढ़ी निशानी...

घर मेरा बनाने की खातिर

खुद किराये के मकानों में

दफ़न कर दी जिसने ज़वानी...


इक बूढ़ी निशानी थी घर में 

जिसे मां कहते थे,

हवाएं कितनी भी गरम रही

छुप जाते थे पल्लू में उसके

हां! उसे हम अंबुवा की

ठंडी छांव कहते थे,

हालातों से जब भी डरा 

मासूम मेमने की तरह

मां बालों में फेर हाथ मेरे

सुनाया करती थी

वीर शेरों की कहानी...

बहुत याद आती है

वो घर की बूढ़ी निशानी...


फरमाइशों की फेरहिस्त को

निभाने में लगा रहता था

वो शख्स!

जिसे हम पिता कहते थे,

मेरे नाजुक पैरों में होते थे, 

हरदम नये जूते

उसके टूटे जूते भी 

यदा-कदा मरम्मत होते थे,

हां! मुझे याद है!

मेरे बाप के पैरों में 

संघर्ष के छाले होते थे,

जरूरतों के थैले को ढोने में 

गुजर गई जिसकी जिंदगानी...

बहुत याद आती है

वो घर की बूढ़ी निशानी...


जब वो करीब थे

तो वक्त नहीं था मेरे पास,

आज फुर्सत में हूं

तो ढूंढता हूं उन्हें आसपास,

हां ! आज बैठा हूं सुबह से

बाबूजी की पुरानी कुर्सी पर

हाथों में लिए 'अनीश'

अम्मा की शाल पुरानी....

बहुत याद आती है

वो घर की बूढ़ी निशानी...



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