विसर्जित
विसर्जित
विसर्जित....
सोच रहा हूँ कर दूँ विसर्जित
तुम्हारी यादों को गंगा में...
ये जो बैचेनी सी रहती है ज़ेहन में ,
एक कसक ,बेक़रारी और कसमसाहट,
या कि हर ओर से दस्तक देती तुम्हारी आहट,
कर दूँ प्रवाहित गंगा में ...
सीने में रिसती तुम्हारी यादें ,
मेरी नींदों में जागती तुम्हारी रातें ,
दर-ब-दर भटक रहा हूँ इन्हें सँभाले,
बहा दूँ किसी दिन गंगा में ...
मेरी ज़ुबाँ पर दौड़ते तुम्हारे शब्द ,
तुम्हारी आवाज़ पर दौड़ती मेरी नब्ज़ ,
ज़ब्त किये बैठा हूँ जो सारे एहसास ,
ख़यालों में सेंधमारी करते मेरे ये सारे जज़्बात ,
गिरा आऊँ सारे गंगा में ...
मेरे ख़्वाबों में बसती तुम्हारी परछाइयाँ ,
मेरे लहू में बहती तुम्हारी छुअन,
मेरे कानोंं में गूँजती तुम्हारी सदाऐं ,
मेरे आगोश में सिमटती तुम्हारी देह की गर्मी ,
दे आऊँ गंगा के आगोश में ...
मुझसे बगावत करते मेरे ये जज़्बात ,
मुझ पर हँसते मेरे ये हालात ,
और अब जो ये मेरी धड़कनें मोहताज है तुम्हारी मौज़ूदगी की ,
तुम्हारी मुस्कुराहट के इंतेज़ार में रुकी हुई मेरी हँसी,
तुम्हारी आवाज़ों में छुपी मेरी ख़ामोशी ,
तुम्हारी रूह में बसती मेरी रूह ,
खो आऊँ ये सब मैं कहीं गंगा में ...
लेकिन ...लेकिन , फिर मैं सोचता हूँ ..
या तो , क्यों कर मैं ऐसा न करूँ ,
कि कर दूँ विसर्जित स्वयं को भी
मैं गंगा में ...
इतने भारी और पाक हैं ये
जज़्बात मोहब्बत के ,
कि मैं इनका नहीं ,
ये कर पाऐंगे मेरा अर्पण तर्पण !!!
या फिर ..आओ कि मैं और तुम बैठे ,
यहीं गंगा के किसी किनारे ,
और कर दे स्वयं को ,
इन तमाम महकते सुलगते
जज़्बातों सहित एक –दूसरे में
विसर्जित .....
