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भारती गौड़

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5.0  

भारती गौड़

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विसर्जित

विसर्जित

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विसर्जित....

 

सोच रहा हूँ कर दूँ विसर्जित

तुम्हारी यादों को गंगा में...

ये जो बैचेनी सी रहती है ज़ेहन में ,

एक कसक ,बेक़रारी और कसमसाहट,

या कि हर ओर से दस्तक देती तुम्हारी आहट,

कर दूँ प्रवाहित गंगा में ...

सीने में रिसती तुम्हारी यादें ,

मेरी नींदों में जागती तुम्हारी रातें ,

दर-ब-दर भटक रहा हूँ इन्हें सँभाले,

बहा दूँ किसी दिन गंगा में ...

मेरी ज़ुबाँ पर दौड़ते तुम्हारे शब्द ,

तुम्हारी आवाज़ पर दौड़ती मेरी नब्ज़ ,

ज़ब्त किये बैठा हूँ जो सारे एहसास ,

ख़यालों में सेंधमारी करते मेरे ये सारे जज़्बात ,

गिरा आऊँ सारे गंगा में ...

 मेरे ख़्वाबों में बसती तुम्हारी परछाइयाँ ,

मेरे लहू में बहती तुम्हारी छुअन,

मेरे कानोंं में गूँजती तुम्हारी सदाऐं ,

मेरे आगोश में सिमटती तुम्हारी देह की गर्मी ,

दे आऊँ गंगा के आगोश में ...

मुझसे बगावत करते मेरे ये जज़्बात ,

मुझ पर हँसते मेरे ये हालात ,

और अब जो ये मेरी धड़कनें मोहताज है तुम्हारी मौज़ूदगी की ,

तुम्हारी मुस्कुराहट के इंतेज़ार में रुकी हुई मेरी हँसी,

तुम्हारी आवाज़ों में छुपी मेरी ख़ामोशी ,

तुम्हारी रूह में बसती मेरी रूह ,

खो आऊँ ये सब मैं कहीं गंगा में ...

लेकिन ...लेकिन , फिर मैं सोचता हूँ ..

या तो , क्यों कर  मैं ऐसा न करूँ ,

 कि कर दूँ विसर्जित स्वयं को भी

मैं  गंगा में ...

इतने भारी और पाक हैं ये

जज़्बात मोहब्बत के ,

कि मैं इनका नहीं ,

ये कर पाऐंगे मेरा अर्पण तर्पण !!!

या फिर ..आओ कि मैं और तुम बैठे ,

यहीं गंगा के किसी किनारे ,

और कर दे स्वयं को ,

इन तमाम महकते सुलगते

जज़्बातों सहित एक –दूसरे में

विसर्जित .....

                       

     

 

 

 

 

 

 

 

 

 

       


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