स्त्री और पुरुष
स्त्री और पुरुष
स्त्री और पुरुष
================
जीवन की धुरी ..स्त्री और पुरुष
रिश्तोंं की बिसात पर
सवालोंं के मोहरे बन
चालेंं चलते ....स्त्री और पुरुष
क्यूँ झरोखे से झाँकती हो ...
क्यूँ बोलती हो बात -बात पर इतना हँस के
पुरुष के सवाल थे ये स्त्री के लिए
प्रथम पुरुष पिता ,
बेटी के लिए माँ औरत थी ,
गर्दन झुका कर
अपराध की स्वीकृति ली माँ ने ....
हाँ माँ ने ही सिखाना शुरू किया स्त्री होने का अर्थ
और पिता ने पुरुष होकर बताया
रेखायें खींंचना ...
दूसरा पुरुष भाई ,
उसे भी अपना पुरुषार्थ समझाना था
हक़ से छीनकर गटकना दूध
उसके पुरुष होने की शुरुआत थी
और बेटी को तो स्त्री ही बनना था ,
वो सिर्फ़ आँखों के पानी का ही स्वाद ले सकी ....
तीसरा महापुरुष पति
परम पुरुषार्थी ...
जो रेखायेंं खींंचना शुरू किया था पिता ने
यहाँ तक की यात्रा में वो
गोल आवृति बन चुकी थी
रहना था उसी में गोल गोल घूम कर
ह्रदय ध्वनि सुनना और बोलना प्रतिबन्धित
सिर्फ और सिर्फ हाँ बोलना ही निर्धारित था वृत में ,
जिसे हर पुरुष सुनकर पुरुषार्थ महसूसता है ....
माँ कुछ नहीं समझती हो आप ,
हमें नये अर्थ सीखने है नये समय के
बेटा...
वो भी तो पुरुष बनने को अग्रसर है
स्त्री बनी माँ सिर्फ़ ख़ामोश है
चुप रहने भर की नियति है उसकी
लेकिन उसे बोलना था ,
विरासत में मिली संस्कारों की करुण चुप्पी को तोडना था
भीतर बोलने की अकुलाहट
ज़ुबाँ पर आने लगी
वो बोलने लगी अपने से ....
अरे .....!!!!
यह तो पागल है
जाने क्या -क्या बड़बड़ाती है हर दम ...
स्त्री बुत बनी सुनती रही सब ...!!!!
(नियति के विरुद्ध बोलना पागल करार ही दिया जाता है ...)