सिकुड़ता आँगन
सिकुड़ता आँगन
जो समेटे हुए है
कमरों को दलानों को
छतों को मकानों को
जैसे नारी समेटती है
पति को संतानों को
संबंधों को मेहमानों को
जीवन रंगमंच का प्रांगण हूं
हां मैं आंगन हूं।
मेरी बांहों में किलकारियां गूंजी
मेरी गोदी में तोतली बोली
मेरे फिजा में पायल छन छन
प्रेम की वर्षा जब खनकी चूड़ी
मैंने देखा बच्चों को बढ़ते
डगमगाते से मजबूती से चलते
पर जाने किसकी नजर लगी
आई कैसी मुश्किल की घड़ी?
जीवन में नाम कमाने को
घर में धन धान्य लाने को
सब आतुर बाहर जाने को
बाहर जो मौका खड़ी
साथ लाई स्पर्धा बड़ी
स्पर्धा अनुकूल बनाने को
खुद को उस में ढालने को
जाना होगा शहर की ओर
जहां हो संसाधन प्रचूर।
नव आस नये भविष्य की चाह
बच्चों ने पकड़ी शहर की राह
जाने कितनी पीढ़ियां देखी
पहली बार अजीब बेबसी
मेरे साथ बुजुर्ग भी रोते
पर जाहिर करने से बचते
उम्मीद थी बच्चे वापस आएंगे
फिर से फिजा खिलखिलाएंगे
पर खुदा को ना था ये मंजूर
समय के साथ वे और हुए दूर।
नया समय नया परिवेश
नई मांग और नई वेश
यह सब कैसे करती मैं पूरी?
सो रह गायी बिल्कुल अधूरी
कभी तीज त्यौहार चले आते
झूठा ही प्यार जता जाते
जीवन पथ पर दुविधा बड़ी
मैं करूं क्यों समस्या खड़ी?
अपनी जीवन भी कट जाएगी
पर अब किसको मेरी पड़ी ?
आस टूटी थी अब मैं भी टूटी
अंतिम घड़ी कब सांस भी छूटे?
मैंने कहा मुझे साथ ले चल
अपनों के बीच हो कुछ अंतिम पल।
पर मुझको ये भान न था
शहर में आंगन के मकान न था
सामंजस्य बनाने में कठिनाई
शहर की हवा हमें रास ना आई
बची हुई ऊर्जा को समेटे
वापस हम भी घर को लौटे
जीवन को हंसी में ले लेंगे
अब गाय गोरु संग खेलेंगे
खुलकर जब जिया यहां
हंस कर यही मर जाएंगे
प्रभु से है बस एक विनती
गर जन्म हो मिले यही धरती ।
