शिद्दत-ए-इज़हार
शिद्दत-ए-इज़हार
के हक़ीक़त नही, तुम हसरत रहे
बेबस अरमानों के फ़सानों का घूँघट डाले
अमृत की तृप्ति में उलझे,
अश्कों के पन्नों पर कोरे काग़ज़ रहे..
फ़िरदौस ये जहाँ आबरू की जतन में ना जाने कब तक लाचार रहा..
रहमत की उस बारिश में एक ख़्वाब,
ना जाने कब तक बेआबरू रहा ।
शिरकत धीमी, आहटें सुन्न...
पर हमदर्द बने रहते ॥
दरिया जमाने कि बहिश्त को समेटे, सवेरा गर्दिश में धकेले...
अफ़वाहों के क़ुसूर से, सुक़ुन ढूँढ लाते
पर पहलू में सबब,
हर ज़र्रे में उजाला बने रहते ॥
शहर समेटो, सहारा ढूँढ़ों..
शमा
जलने दो, चराग़ों के महताब का
के शाम, एक अफ़्साने की कहानी कहनी, मंज़िल होगी..
रात के अंधेरों में घटते-पिघलते चाँद के मिज़ाज का ॥
फ़ैसले फ़ासलों में गर नासाज़ ना होते,
थके-हारे परिंदे खामोशी को बेताब ना होते ।
मुझे सहल हो गई मंज़िल वो,
वो चेहरा.
वो अब ख़ाब ओ ख़याल..
न पाने से किसी के है न कुछ खोने से मतलब है।
चलो लौट ना आते पर हमनवा बने रहते ॥
तजुर्बा नादानी, झूठी अखरन
पर ईमान-उसूल, शिद्दत की फ़ितरत तो निभाते..
सरेराह फ़ासला रख लिया,
इल्ज़ाम हज़ारों हैं ।
पर खता तो बता जाते ।।