रूप...
रूप...
1 min
449
पेड़ो के झुरमुट से होते हुए,
मृदा में भी समाती हो।
सागर की लहरों से मिलते हुए,
नदियों की भी सैर कर आती हो।
परंतु हे! जगकल्याणी तुम अपना रूप,
क्यों न दिखलाती हो?
फसलों को लहलहाते हुए,
किसानों को हर्षाती हो।
फूलो की खुशबू को,
हम तक पहुंचाती हो।
परंतु हे! वायवीय तुम अपना रूप,
क्यों न दिखलाती हो?
माना की आजकल मनुष्यो ने,
बिगाड दिया है तुम्हारा रूप,
गाड़ी, चिमनी, आदि के धुएं ने,
कर दिया है तुम्हे कुरूप।
परंतु हे! जीवनदायनी कुछ मनुष्य कर रहे है,
अब प्रयास खूब।
तो अब जल्द निखरेगा,
तुम्हारा रूप।
