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रुष्ट कृष्ण

रुष्ट कृष्ण

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कृष्ण हूं मैं सारे जग का।

आकृष्ण हूं मैं प्यारे मृग का ।।

ये अपरा प्रकृति मेरी माया।

उस पर मनक परा मेरी छाया।।

मैं भी स्वतंत्र।

तू भी स्वतंत्र।।

बस प्रेम मुझे संग तेरे लाया।

प्रेम मेरा तुझे क्यो ना भाया।।

रति भर प्रेम हूं मांग रहा।

वो भी मुझको तू दे न सका।।

हां जा तू, हां जा तू।

रुष्ट हुआ मैं अब जाता हूं।

फिर आ तू, फिर आ तू।

तुझको तब ही मैं बतलाता हूं।।

तू दूर मुझसे क्या जाता है।

फिर दुख में लौट क्यो आता है।।

विश्व नहीं उद्देश तेरा।

बस जोग निद्रा है मात्र मेरा।।

संसार स्थूल है प्रकृति सृजन।

सपन सूक्ष्म है तेरा रचन।।

कारण से जब तू जाता है।

बस थोड़ा सा रह जाता है।।

क्या है ऊपरीनभ की ऊंचाई।

क्या है निम्ननभ की गहराई।।

इस पर कण कितने पृथ्वी पर।

हैं बुंद कितनी सागर जल पर।।

नपा नहीं अब तक तुझसे तो।

असंख्य ब्रम्हांड कब तक नापेगा??

क्षितिज को इस कोने उस कोने कब बांधेगा??

आकाश को कृष्ण से श्वेत कब तक तू रंगवायेगा।

नहीं करेगा तो चिंता से ठगा सा रह जाएगा।।

पेट की अग्नि बूझी नहीं।।

तू रवि को क्या बूझायेगा।।

बस कर बस कर, बस न किया तो

चिंता में डुब जाएगा।।

अखंड पृथ्वी का राज मांगा तब।

अनायास ही वर दिया तब।।

एक क्षण मेरे जग का ।

बहु बहु वर्ष तेरे जग का ।।

लौट के जब तू जाएगा।

कुछ भी तू न वैसा पाएगा।।

जहां हरित वन होते थे तब।

अब मरुस्थल पाएगा।।

स्वछंद बहती थी जो जमुना वो।

अब नाली तू पाएगा।।



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