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Abhinav Bhardwaj

Others

5.0  

Abhinav Bhardwaj

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रोटी

रोटी

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भूखे प्यासे तन को मेरे हैं बस चंद टुकड़ो की आस,

रख लो अपने महल दुमहले ना लगते मुझे ये कुछ खास।


दौड़ दौड़ कर नोट बटोरे और खो दिया हैं सबने चैन,

भुखे रह कर ना जाने कितनी गुज़री रैन।


रोज़ के इस शोर में कहीं दब सी गई है आवाज़ वो,

अक्सर बिस्तर पर सुनाई देती हैं वो भूख की गुड़गुड़ाहट।


कभी नज़र घुमाई तो फुटपाथ पर सोता दिखा वो बचपन,

माटी में लौट कर रोते बिलखते दो रोटी की जंग में ही गुज़र जाता है उनका जीवन।


अधूरी ख्वाहिशें अक़्सर देती हैं इस मन को त्रास,

ज़िन्दगी असल में बस मांगे वही रोटी के दो ग्रास।


मायने ही बदल गए हैं इस जीवन में संतोष के,

ख़ोज बस नोटो की है उस गेहूं की रोटी को छोड़ के।


बूढ़ी माँ की आँखें पथराती बेटे के इंतज़ार में,

उम्मीद भी उसकी धूमिल होती कि खिलाएगी उसे वो रोटी अपने हाथ से।


भूखे प्यासे तन को मेरे हैं बस चंद टुकड़ो की आस,

रख लो अपने महल दुमहले ना लगते मुझे ये कुछ खास।


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