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Vinod Kumar Mishra

Others

4.6  

Vinod Kumar Mishra

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रक्षा-बंधन

रक्षा-बंधन

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देख बाज़ारों की रंगत,

अब तो आँखे भर आती हैं,

जिस बहन ने कभी बांधा था प्यार का धागा

अब उसकी राखी चिट्ठी में भरकर आती है।


अभिशप्त हुआ सा लगता है ये बड़ा हो जाना,

जिस बहन के साथ बीता सारा बचपन

लोग उसे परायी कह जाते हैं

कोई पूछे जाकर उन भाईयों के दिल से उनका हाल

जिनके हाथ राखी के दिन सूने रह जाते है।


सजती हैं थालियां घरों में

देख उन्हें उस बहन को भाई की याद आ जाती है,

पर पड़ी है ससुराल की मजबूरियों में

किसी तरह आंसुओं को आँखों में ही छिपाती है।


व्यस्तताएं जीवन में बहुत हुई हैं

नए रिश्ते इस रिश्ते को दूर कर जाते हैं

पर इस एक दिन का महत्व उन दिलों से पूछो

जब रेशम के धागे रक्षा-सूत्र बन जाते हैं।


भूखी रहती है वो दिन भर,भाई को मिठाई खिलाकर ही

खुद खाना खाती है

एक रेशम की डोर बांधकर लेती है उससे रक्षा का वचन

और मन ही मन में उसके उन्नत होने की

दुआ कर जाती है।


कहती है बहन कि जाती हूँ ससुराल

जब लौटूं तो मेहमान कहकर परायी न कर देना

रखना माता - पिता का ख़्याल इस तरह

कि मेरी बिछड़न में उन आँखों में आँसू न रहने देना।


जो रही मेरे पीहर में खुशियाँ

तभी मै वहॉं खुश रह पाऊँगी

बहु बनूँगी उस घर की मैं भैया

पर बेटी तो इसी घर की कहलाऊँगी।


कहती है बहन कि भले ही तुम न देना चूड़ी-कँगना

नहीं चाहती मै तुमसे कोई सोने का गहना

पर जब उठे मेरी लाज पर कोई भी प्रश्न

तो भैया उस वक़्त तुम मौन न रहना।


भीड़ बहुत है कौरवों की, पग पग पर मिलते हैं दुःशासन

ऐसा इस कलयुग का नज़ारा है,

जब भी पुकारूँ, तुम आ जाना भैया

इस बहन को अब तुम जैसे कृष्ण का ही सहारा है।


न है ये कोई औपचारिकता

ये निश्छल प्रेम का व्यवहार है

एक छोटे से साड़ी के टुकड़े के बदले

रखी थी कृष्ण ने द्रौपदी की लाज

तब से कहलाया ये

रक्षाबंधन का त्यौहार है।


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