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Aryan Srivastava

Others

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Aryan Srivastava

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रात

रात

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परत दर परत शाम चढ़ रही है,

दिन ढल सा रहा है।

चाँद अपने रेशे बिखेर रहा है,

अँधेरा अपनी लड़खड़ाई सी चाल लिए,

रात भर गश्त लगाने को निकल पड़ा है।

रौशनी कुछ ढल सी गई है,

जुगनुओं में भी जैसे बहता हो अँधेरा,

बंद संदूक सी लहरें समुद्र की शांत है।

दूर कहीं आयत पढ़ रहा है कोई,

ऐसा समां बन उठा है।

कितनी जीनत है इस पहलू में,

न जाने कितनो की अमानत है इस पहलू में,

दिन को सजा रहता है आसमान परिंदो से,

तो सजाई है खुदा ने रात अंधेरों से।

ओढ़ने को जी करता है इस रात को खुद पे,

घोल देने को जी करता है इन ओस को खुद मे,

पर ये जीनत भी वक़्त की गुलाम है,

आज शाम तो कभी,

धूप बांटता आसमान है।


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