परम्परा
परम्परा
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आज पत्थर हूँ
मगर
न रहूँगा देर तक
मुझे भी मिलेगा
एक दिन
छेनी-हथौड़ी थमा हाथ
हर चोट से निखरकर
बनता जाऊँगा इक देह
और फिर
मैं भी थामूँगा
"छेनी-हथौड़ी"
मेरे जैसे ही
किसी पत्थर के लिये।
