प्राकृतिक क्रिया - हर नारी की
प्राकृतिक क्रिया - हर नारी की
घर में होकर भी मैं पराया महसूस करती हूँ,
उन तीन दिनों को अकसर कोसा करती हूँ।
यह मेरी ही नहीं मेरी जैसी हर लड़की की हैं कहानी,
घर पर होकर भी बच्चों को नहीं देख पाती हूँ।
दर्द ऐसा कि लगता है अब जान निकल जाएगी,
शरीर के उस हिस्से की कटन भर ना पाएगी,
आह भरते हुए उठती हूँ,
एक हाथ से अपने दर्द और
दूसरे हाथ से बच्चों को संभालती हूँ।
मुझे कोई ग़म नहीं,
कोई शिकायत नहीं किसी से,
बस थोड़ा सा प्यार और अपनापन चाहती हूँ।
रोज़ मैं देखती हूँ बच्चों को,
तुम्हारे सारे काम को,
आज तुम देख लो तो दर्द अपने आप कम हो जाए,
बस थोड़ा सा साथ माँगती हूँ।
कुछ ज़्यादा नहीं,
बस थोड़ी सी सिकाई कर दो,
अपने सख़्त हाथों से,
थोड़ी सी मालिश कर दो,
थोड़ी सी देर प्यार से बात कर लो,
तुम मेरा हाथ थाम कर बस ये कह दो,
आज तुम रहने दो बच्चों की चिंता,
बस मेरा हाथ थाम कर बस ये कह दो,
आज तुम रहने दो बच्चों की चिंता,
आज तुम रहने दो घर के काम,
आज मैं अपना काम अपने आप कर लूँगा,
तुम आराम करो,
मैं तुम्हारा साथ दूँगा।
अगर मैं ऐसा सुन लूँ,
तो मेरा रोम-रोम खिल जाए,
अगर मैं ऐसा सुन लूँ,
तो मेरा रोम-रोम खिल जाए,
जितना खून निकल रहा है,
उतना ही फिर बन जाए।
यह प्राकृतिक क्रिया है तभी हो तुम,
यह प्राकृतिक क्रिया है तभी हो तुम,
इसलिए कहती हूँ,
सम्मान करो,
तिरस्कार ना करो तुम ।
अगर तुम थोड़ा सा बदल जाओगे,
मेरा सहारा बन,
मेरा साथ निभाओगे,
फिर ईश्वर की इस विधा को
सरताज बना के रखेंगे हम,
फिर ईश्वर की इस विधा को
सरताज बनाके रखेंगे हम।
कैसा दर्द, कैसी कटन,
बस तुम्हारे अहसास से,
ख़ुशी-ख़ुशी निकल जाएंगे यें दिन,
बस तुम्हारे अहसास से,
ख़ुशी-ख़ुशी निकल जाएंगे यें दिन।