नियंता
नियंता
भटके को निर्देशित कर दे, ना ऐसा मंतव्य कहीं है,
चाह हो तेरे अंतरतम में, सच मानो गंतव्य यहीं है।
बादल तो पानी बरसाए,एक बराबर हीं जग पर,
तुम सारे निज पात्र लिए हीं, अड़े रहे निज धरती पर।
श्रम साधक को करना होता, जब चोटी को हरना होता,
सरिता जो बहती धरती पे, क्या पहाड़ से लड़ना होता?
आशा किंचित छुपी पड़ी है, अहंकार के कोने में,
चिंता का कारण है नित दिन, सब कुछ में कुछ होने में।
हो भी सकते हो तुम कैसे निज भाग्य का अभियंता,
वो परम तत्व ही हतभागी वो परम तत्व सर्वनियंता।