नींद
नींद
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कभी पकड़ नहीं पाता पर
भागता हूँ हर रात उसके पीछे,
कभी थोड़ा तेज़ हो भी लूँ
तो उसकी यादें पीछे ढ़केल देती है !
यह कम्बख्त नींद भी पीछे मुड़कर हँसती है !
कहती है ...
"जब मैं जल्दी आती थी तो मुहँ मोड़ लेते थे
जब वो दिखती थी अनदेखा कर देते थे
क्यों अनसुना किया मुझे जब वो बोलती थी
मैं बचपन से हूँ और वो जवानी में आयी है
मैं जानती हूँ तुम्हें अंदर से क्या वो बाहर से भी समझ नहीं पायी है !"
अब न नींद रही न वो रही,
एक पीछे रह गयी एक आगे दौड़ रही !
सपने भी हो लिए दोनों के साथ ...
अब हूँ मैं अकेला पर,
फिर भी भागता हूँ हर रात उसके पीछे
नहीं पकड़ पता पर कभी !