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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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मिट्टी की सौंधी सी खुशबू

मिट्टी की सौंधी सी खुशबू

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कभी आती थी लोगों के दिलों से 

गांव की मिट्टी जैसी सौंधी सी खुशबू

और महक जाते थे तन मन बदन । 

तब हृदय निष्कपट, मासूम होते थे 

पूरी दुनिया से भी विशाल होते थे 

जिसमें धड़कता था एक मासूम सा दिल । 

सबके लिये कोमल सी संवेदनाएं होती थी 

भावनाएं भलाई के ताने बाने पिरोती थी 

और महसूस होता था अपनापन, लगाव । 

स्वार्थ की गाड़ी पर सवार रिश्ते नहीं थे 

मतलब के लिये प्यार, कारोबार नहीं थे 

और ना ही जगह थी धूर्तता, मक्कारी की । 

मुखड़ा पूनम के चांद सा खिलता था 

आंखों में प्रीत का गुलाब खिलता था 

और होठों पर खेलती थी निर्मल मुस्कान । 

गांव के जीवन सी स्फूर्ति व्यवहार में दिखती थी

आलिंगन में अपनत्व के सावन सी बौछार लगती थी

और प्रसन्न हो जाती थीं आंखें, बांहें और आत्मा । 

अब तो लोगों के मन कंक्रीट के जंगल से हो गए 

प्रदूषित जल, वायु की तरह कसैले से हो गये 

जहां रहने लगा है बेईमानी का पूरा परिवार । 

रिश्तों में आन बान सम्मान अब कहाँ है 

हर दिल से उठ रहा गमों का सा धुंआ है 

आंखें और दिल भीगे हुये हैं आंसुओं से । 

काश वो पहले सा अपनापन कहीं मिल जाये

वो मस्त खिलंदड़ सा बचपन कहीं मिल जाये

और जी लें हम भी फिर से एक प्यारी सी जिंदगी । 


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