मेरे हिस्से का आसमान
मेरे हिस्से का आसमान
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ऊँची इमारतें बिछा दीं हैं सबने,
फिर भी मेरे हिस्से का आसमां मिल ही गया मुझे,
सूरज उगते डूबते तो नहीं मिलता,
पर रोशनी के ख़त भेज देता है,
हाल-चाल पता चलते रहते हैं,
वो हर दोपहर आता भी है शायद,
कभी रहता हूँ घर,
तो कुछ देर सुस्ता कर, मिल कर जाता है,
रोज़ वही काम,
पर बड़े मसरूफ़ रहते हैं हम दोनों ही,
पंछियों की परवाज़,
उनके घरोंदों से भले ही ना दिखे,
पर एक इमारत से दूसरी के बीच उड़ते हुए,
मुझे आवाज़ देते हुए गुज़र जाते हैं,
चौदह मंज़िलें ऊपर,
दस नीचे,
ना छत टपकती है,
ना पानी भरता है,
तब भी बारिश के कुछ छींटें,
आ ही जाते हैं मेरी बालकनी में,
यूँ तो एक बड़ा आँगन सोचा था कभी,
पर आसमान का अपना ये हिस्सा भी मंज़ूर है मुझे।
