मेरा अतीत ही भविष्य है मेरा
मेरा अतीत ही भविष्य है मेरा
उस दिन मैंने
हिरोशिमा की मोतोयासु नदी के किनारे खड़े
डोम से पूछा-
एक योगी की तरह ध्यानमग्न
क्या सोचते रहते हो?
जब सारा शहर और शान्ति स्मारक
हरियाली के कपड़े पहन
इठला रहा है
एक तुम्ही दिगम्बर भिक्षु की तरह
नत शिर खड़े हो।
दर्शकों की भीड़ के सामने
कब तक देते रहोगे गवाही?
कौन जानेगा तुम्हारी अन्तर्ज्वाला का रहस्य?
असहनीय ताप से पिघली
तुम्हारी लौह बाँहें
आज भी सँभाले हुऐ हैं
तुम्हारी जर्जर काया
महाविस्फोट की प्रलयंकारी गूँज से
क्या तुम भी बहरे हो गऐ हो?
मैं तुम्हारे ठीक नीचे खड़ा हूँ
और बात करना चाहता हूँ
तुम्हारे गूँगेपन में समाई
उस चीख को सुनना चाहता हूँ
जिसकी अनुगूँज
आज भी तुम्हारे गुम्बद में क़ैद है।
सहसा बोल उठा गुम्बद जैसे
अतल गहराईयों से
टकरा कर लौटती हुई आवाज़ में
उदास मन कहा उसने-
बुद्ध के देश से आऐ बन्धु मेरे!
मुझसे अब खड़ा नहीं रहा जाता
सत्तर वर्ष का बूढ़ा हूँ।
किस तरह टेढ़ी-मेढ़ी हो गई हैं
मेरी लौह बाँहें
पैर काँपने लगे हैं
बैसाखियों के सहारे
कब तक खड़ा रह पाऊँगा मैं?
मुझे अब ढह जाने दो!
ज़िन्दा रहने के लिऐ भी तो
एक मक़सद चाहिऐ
हर ओर आतंक ही आतंक है
रोज लड़े जा रहे हैं युद्ध
आदमी मरे अणुबम की आग से
या फिर देसी बम के छर्रों से
क्या फ़र्क पड़ता है?
मौत तो मौत है!
उनकी मौत के साथ मरते हैं सपने
सपनों के साथ मरता है भविष्य
अनंत काल से चली आ रही
अत्याचारों की यह परम्परा
क्या कभी रुक पाऐगी?
क्या मेरी गूँगी हिचकियों की आवाज़
किसी जिहादी की
लपलपाती आकांक्षाओं पर
अंकुश लगा पाऐगी?
बामियान के बुद्ध को
उड़ाने से बेहतर होता
यदि मुझे उड़ा दिया जाता।
प्रतिक्षण होते विनाश को देख
पथरा गईं हैं मेरी आँखें
मैं अब सोना चाहता हूँ ।
चाहता हूँ मिट जाऐ मेरा होना
मैं चूर-चूर हो
मिट्टी में मिल जाना चाहता हूँ
चाहता हूँ उन्हीं में समा जाना
जिनकी माँस-मज्जा मेरे आसपास की
धरती में समाई है।
शान्ति पार्क के किनारे खड़ा
कितना अशांत हूँ मैं
कोई-नहीं जानता।
कैमरे की आँख से
देखने वालों की
हृदय की आँखें बन्द हैं।
मैं शापग्रस्त
अपनी क्षत-विक्षत काया लिऐ
जाने कब तक
यहाँ खड़ा रहूँगा?
शायद अपराधी हूँ कि,
महाविस्फोट के क्षण
गुमसुम खड़ा
अनगिनत लोगों को
भाप बन उड़ते देखते रहा!
क्या यही है मेरा अपराध?
और कैसा है यह मुक़दमा!
कटघरे में खड़ा
रोज देता हूँ गवाही
हज़ारों-हज़ार लोगों का
हुज्जूम आता है यहाँ
और चला जाता है
मेरे जीवन की त्रासदी
क्या ओरों के लिऐ
एक तमाशा भर है?
ये मानव विरोधी
ख़ूँखार पशु-मानवों की दुनिया
मेरी नुमाईश से
बदलने वाली नहीं।
मेरी गवाही से भी
पसीजेगी नहीं उनकी आत्मा
नहीं उठेंगे हाथ
आततायी के विरोध में
ये मिसाइलें, ये तोप गोले,
यह ज़मीन पर बिछी बारूदी सुरंगें
ये दिल दहलाने वाले
हवाई हमले
कैसे रूकेंगे?
आत्मलीन, आत्ममुग्ध लोग
लेते रहेंगे सेल्फी
जो छपती रहेंगी
फेसबुक के पन्नों पर
लाइक-डिसलाइक के
मोहक मायाजाल में
तार-तार होता रहेगा मेरा सच
मेरी पीड़ा, मेरी विवशता!
मैं पूछना चाहता हूँ सबसे
क्या मेरी मौन चीख
सुनी है आपने?
मानव-भविष्य की चिन्ता में
कण-कण बिखरती
मेरी काया का क्षरण
देखा है तुमने?
मैं जानता हूँ
तुम भी उन्हीं में से एक हो
हजारों, लाखों, करोड़ों की भीड़ में खड़े
स्वार्थी, कायर, अवसरवादी
दूसरों की चिताओं पर
रोटियाँ सेकने वाले
मेरे चित्रों की ओट में
बखानोगे अपनी यात्रा का रोमांच
सचित्र कहानी छाप
विश्वयात्री होने के गर्व से इठलाओगे
पावर-प्रेजेंटेशन में
आँकड़ों सहित
खींचोगे मेरे महाविनाश का खाक़ा?
क्या इसमें ज़िक्र होगा
मेरी मर्मान्तक पीड़ा का?
प्रतिपल नर्क होती जा रही
दुनिया को बदलने का
कोई सपना भी होगा?
या फिर
तटस्थ और गुट निरपेक्ष होने का
ढोंगे रचोगे!
विकल्पों की कीचड़ में
आकंठ डूबते-उतराते
कभी अपनी सुविधाओं को
छोड़ भी पाओगे?
बेहद लच्छेदार भाषा के इंद्रजाल से
तिलिस्मी आभा मंडल रच
पुरस्कार और सम्मानों से
नहीं लद जाऐंगे?
जानता हूँ वर्षो तक
मेरे ही कन्धे पर बंदूक रख
शान्ति-शान्ति चिल्लाते तुम
सफेद कपोत उड़ाओगे
सच कहता हूँ-
कपोतों की फड़फड़ाहट सुन
मेरी रूह काँपती है।
मैंने देखा है सत्तर साल पहले
6 अगस्त के दिन
लाखों आत्माओं को
कपोतों की तरह
फड़फड़ाकर उड़ते हुऐ
प्रत्यक्षदर्शी हूँ उनके
असमय अवसान का
भोक्ता भी हूँ उस आणविक आग का
जिसके फफोलों के घाव
मेरी दीवारों के
उखड़े पलस्तर के पीछे
आज भी उभर आते हैं
भोगा हुआ यथार्थ
बघारते रहे तुम जीवन-भर
और मैंने जो भोगा है
कौन सा यथार्थ है वह?
मेरे सामने फैले
शान्ति स्मारक के मध्य
जलती रहती है आग की लौ
मेरे ही सामने
दोनों हाथ उठाऐ
खड़ी है सदा को
जिसकी मासूम निगाहों में
पूरी ज़िन्दगी जीने की तमन्ना
डबडबाती थी
जो आखिरी साँस तक
बनाती रही कागज़ी सारस
कि दिए की लौ सी काँपती
आगत मृत्यु की सम्भावना
कहीं दूर चली जाऐ
सच कहूँ!
मुझसे ज़्यादा भाग्यवान थी वह
मरते-मरते
जीने का पाठ पढ़ा गई आगत पीढ़ी को
उसकी याद में
दूर देशों में बैठे बच्चे
कागज़ी सारसों की माला बनाते हैं
और श्रद्धा के साथ
चढ़ा जाते हैं
उसके स्मारक पर।
नहला देते हैं
अमरता के रंगों से
उसकी याद को।
और मैं यहाँ दूर खड़ा
उन रंगों की आभा को
ललक भरी निगाहों से
निहारता रहता हूँ।
हर साल आने वाली
6 अगस्त
मेरे घाव हरे कर जाती है
मेरे सामने बहती
नदी की छाती पर
शाम होते ही
तैरने लगती हैं
बेशुमार जलती कन्दीलें
कि जिनकी रंग-बिरंगी
परछाईयों को
नदी की मासूम लहरें
हल्के-हल्के थपथपाती हैं
मेरा मन छटपटाता है
काश! मेरे परछाई भी
जलती कन्दील की तरह
बहती चली जाती!
नदी की थपकी देती
लहरों की लोरी सुन
कुछ देर के लिऐ मैं भी सो पाता!
तिरता चला जाता
सागर की ओर
फिर अनंत में मिल जाता!
काश! कि ऐसा हो पाता?
मैं जानता हूँ।
अपने अतीत से मुक्ति पाना
इतना आसान नहीं होता
और मेरा दुर्भाग्य तो यह भी है
कि मेरा कोई वर्तमान नहीं
मुझे तो ऐसे ही
जड़ बने रहकर वर्तमान में
दृश्यता देनी है
अतीत को
ओ मेरे दर्शक मित्र!
जानता हूँ जल्दी में हो तुम
और भी बहुत से आकर्षण हैं यहाँ
जिन्हें तुम
अपने कैमरे में बंद करना चाहते हो
बार-बार घड़ी की ओर देखते हुऐ
मन ही मन
कोस रहे होंगे मुझे शायद
थक भी गऐ होगे
मुझ बूढ़े की राम कहानी सुनते-सुनते!
ओ दूर देश के साथी!
तुम्हारी आँखों में
जाने क्या देख लिया मैंने
कि रोक नहीं पाया अपने को
जैसे जल प्लावन के बाद
टूट जाते हैं बाँध
झंझावातों में फट जाते हैं
नौकाओं के पाल
टूट जाते हैं मस्तूल
आँधियों की चपेट में आ
उखड़ जाते हैं
छतनार वृक्ष
जैसे मासूम बच्चे की मौत पर
छाती पीटती है अभागी माँ
जैसे सूखे में फट जाती है धरती
गर्म हवाओं की रगड़ से
भड़क उठती है
जंगल में आग
नींद में बुरा सपना देख
सुबक-सुबक रो उठती है
डरी हुई बच्ची
कुछ ऐसे ही
मेरी पोर-पोर में
बर्फ़ बन सोई रूलाई
चीख बन टकराती घूम रही है
गुम्बद की गोलाई में
जिसे केवल मैं ही सुन पाता हूँ।
क्षमा चाहता हूँ
पल भर के साथी!
तुम्हारी आँखों में तैरती
आँसू की एक बूँद देख
विगलित हो गया अन्तर मेरा
जाने कब का ठहरा बादल
मानवीय ऊष्मा पा बरस गया
मित्र मेरे!
तुम क्या जानो
आज अचानक मुझमें
कैसा अघट-घट गया है
रूई सा हलका हो गया हूँ
तुम्हारी मौन सहानुभूति के स्पर्श मात्र से
मेरा अहिल्या सा जड़-जीवन
स्पन्दन से भर गया है
पत्थर सी निरर्थक काया को
एक नया जीवन संदेश मिला है
आज जाना है मैंने
अतीत के बिना
कोई वर्तमान भी नहीं होता
और भविष्य
वर्तमान की गोद में ही खेलता है
आज जाना है मैंने
मेरा अतीत ही भविष्य है मेरा
