अगस्त के दिन
अगस्त के दिन
लाखों आत्माओं को
कपोतों की तरह
फड़फड़ाकर उड़ते हुऐ
प्रत्यक्षदर्शी हूँ उनके
असमय अवसान का
भोक्ता भी हूँ उस आणविक आग का
जिसके फफोलों के घाव
मेरी दीवारों के
उखड़े पलस्तर के पीछे
आज भी उभर आते हैं
भोगा हुआ यथार्थ
बघारते रहे तुम जीवन-भर
और मैंने जो भोगा है
कौन सा यथार्थ है वह ?
मेरे सामने फैले
शान्ति स्मारक के मध्य
जलती रहती है आग की लौ
मेरे ही सामने
दोनों हाथ उठाऐ
खड़ी है सदा को
जिसकी मासूम निगाहों में
पूरी ज़िन्दगी जीने की तमन्ना
डबडबाती थी
जो आखिरी साँस तक
बनाती रही कागज़ी सारस
कि दिए की लौ सी काँपती
आगत मृत्यु की संभावना
कहीं दूर चली जाऐ
सच कहूँ !
मुझसे ज्यादा भाग्यवान थी वह
मरते-मरते
जीने का पाठ पढ़ा गई आगत पीढ़ी को
उसकी याद में
दूर देशों में बैठे बच्चे
कागज़ी सारसों की माला बनाते हैं
और श्रद्धा के साथ
चढ़ा जाते हैं
उसके स्मारक पर ।
नहला देते हैं
अमरता के रंगों से
उसकी याद को ।
और मैं यहाँ दूर खड़ा
उन रंगों की आभा को
ललक भरी निगाहों से
निहारता रहता हूँ।
हर साल आने वाली
छ: अगस्त
मेरे घाव हरे कर जाती है
मेरे सामने बहती
नदी की छाती पर
शाम होते ही
तैरने लगती हैं
बेशुमार जलती कन्दीलें
कि जिनकी रंग-बिरंगी
परछाईयों को
नदी की मासूम लहरें
हल्के-हल्के थपथपाती हैं
मेरा मन छटपटाता है
काश ! मेरे परछाई भी
जलती कन्दील की तरह
बहती चली जाती !
नदी की थपकी देती
लहरों की लोरी सुन
कुछ देर के लिऐ मैं भी सो पाता !
तिरता चला जाता
सागर की ओर
फिर अनंत में मिल जाता !
काश! कि ऐसा हो पाता ?
मैं जानता हूँ।
अपने अतीत से मुक्ति पाना
इतना आसान नहीं होता
और मेरा दुर्भाग्य तो यह भी है
कि मेरा कोई वर्तमान नहीं
मुझे तो ऐसे ही
जड़ बने रहकर वर्तमान में
दृश्यता देनी है
अतीत को
ओ मेरे दर्शक मित्र !
जानता हूँ जल्दी में हो तुम
और भी बहुत से आकर्षण हैं यहाँ
जिन्हें तुम
अपने कैमरे में बंद करना चाहते हो
बार-बार घड़ी की ओर देखते हुऐ
मन ही मन
कोस रहे होगे मुझे शायद
थक भी गऐ होगे
मुझ बूढ़े की राम कहानी सुनते-सुनते !
ओ दूर देश के साथी !
तुम्हारी आँखों में
जाने क्या देख लिया मैंने
कि रोक नहीं पाया अपने को
जैसे जल प्लावन के बाद
टूट जाते हैं बाँध
झंझावातों में फट जाते हैं
नौकाओं के पाल
टूट जाते हैं मस्तूल
आँधियों की चपेट में आ
उखड़ जाते हैं
छतनार वृक्ष
जैसे मासूम बच्चे की मौत पर
छाती पीटती है अभागी माँ
जैसे सूखे में फट जाती है धरती
गर्म हवाओं की रगड़ से
भड़क उठती है
जंगल में आग
नींद में बुरा सपना देख
सुबक-सुबक रो उठती है
डरी हुई बच्ची
कुछ ऐसे ही
मेरी पोर-पोर में
बर्फ बन सोई रुलाई
चीख बन टकराती घूम रही है
गुम्बद की गोलाई में
जिसे केवल मैं ही सुन पाता हूँ।
क्षमा चाहता हूँ
पल भर के साथी !
तुम्हारी आँखों में तैरती
आँसू की एक बूँद देख
विगलित हो गया अन्तर मेरा
जाने कब का ठहरा बादल
मानवीय ऊष्मा पा बरस गया !