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Vinay Shukla

Others

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Vinay Shukla

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लोकतंत्र

लोकतंत्र

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एक पेड़ 

जो कड़ी धूप में खड़ा था,

न जाने किस बात पर

अड़ा था,

लोगों से अपनी असीम

संवेदनाएं जता रहा था,

पूछने पर अपना नाम 

लोकतंत्र बता रहा था,


उसने अपने दर्द का पिटारा खोला,

लोगों को समझाते हुए बोला,

आओ, आओ बैठो मेरे पास,

अगर ज़िन्दा है 

तुम्हारे दिलों के एहसास,

सोच सकते हो तो सोचो,

देख सकते हो देखो,

मेरे रोते बिलखते हालात को,

लहू से तरबतर,

मेरे टूटे हुए, जज्बात को,

ये जो दूर तक फैली 

मेरी शाखाएं हैं,

दर असल ये जनता की उम्मीद है,

आशाएं हैं, 


जब कभी संकट की धूप 

तेरे जीवन में छा जाती है,

तेरी ज़िन्दगी,

मेरे साये में आ जाती है,

इनपर खिलनेवाले फूल 

तेरे घरों की शान हैं,

तेरे राम की, रहीम की

नानक की पहचान हैं,

क्या तुम मेरे फलों की

एहमियत को जानते हो ?

पेट की आग क्या होती है,

पहचानते हो?


पहचानिये, पहचानिये मुझे,

मैं लोगों के सुख का, समृद्धि का,

शांति का मंत्र हूँ,

गौर से देखो मुझे

मैं हिंदुस्तान का लोकतंत्र हूँ।

मैं वो लोकतंत्र हुं जो,

सियासत की मृत शैय्या को

अपने आंसूओं से सींचता है,

किसी असहाय, 

निर्बल भीष्म की तरह,

जो हर रोज एक नया 

चीर हरण देखता है।


कुछ लोग जो अपनी आत्मा को

बेच कर सो रहें हैं,

राजनैतिक परिवेश में लगातार 

अपना स्तर खो रहें है, 

कभी जबान तो कभी ईमान 

डोल जाता है, 

लोकतंत्र की आड़ में कोई भी

कुछ भी बोल जाता है, 

मेरी आत्मा तो उस रोज रोती है, 

जब सड़कों पर मर्यादा

शर्मसार होती है,

मेरी जीवित काया को 

कई गिद्ध लगातार नोंच रहे हैं,

कुछ लोग तो 

मेरा अंतिम संस्कार करने की

सोच रहें है,

जरा सोंचिये

आप अपनी आने वाली 

नस्ल को क्या मुंह दिखाएंगे

मेरे बारे में क्या

हकीक़त बताएंगे,

अगर मैं ही न रहा 

तो ये लोकतंत्र कहाँ से लाएंगे।


                   



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