लिखता हूँ कविता....
लिखता हूँ कविता....
लिखता हूँ कविता...
नहीं कोई पढ़ता अपना
न कोई आता सपना
गढ़ता हूँ अपने अंदर
रहता हूँ बेचैन ..
दो शब्द तारीफ के
सुनने को तरसते कान
पुछते है मेरा हालचाल
उनके पास दूरभाष
इसी प्रेम से चलता संसार
लिखता हूँ कविता
जोर जोर से चिल्लाते
झूठ का सुंदर अभिनय
कर जाते...
पेट में आग लगी
खेत में धान सुखाते..
बदल नहीं सकती दुनिया
तुम बदल जाओ...
झूठ के आवरण में
अपना नाम दर्ज करा जाओ
तुमको मालूम नहीं
निकम्मेपन से ज्यादा महत्वपूर्ण होती चोरी
ऐन-केन प्रकार से पैसा कमाओ...
लिखता हूँ कविता...
छल-कपट करके क्या तुम
अनुराग पा सकोगे..?.
छ-मास की गरन्टी का जूता जरूर
ले आओगें...
फूल है तो शोभा पेड़ो की
सुंदर-सा मेकअप करके
तुम्हीं भी उपदेश सुनने आओ...
(उपदेश सुनाने वाले भी ऐसी ही है)
लिखता हूँ कविता...
त्याग को कब्र में गाढ़ देना
करते फिरना मनमानी
गिराते रहना लोगों पर गाज..
पागल हो झूठ नहीं बोलते
स्वार्थ के तराजू में
अपने को नहीं तोलते...
तुमने नहीं पढ़ाना मेरी सच्चाई की कविता
पगले..तुम जैसों को संसार की जरूरत
सब कहते प्रेम किताबों रह गया
सच्चाई कवि के हृदय के साथ
बिक गई...
लिखता हूँ कविता
...
तुमको नहीं आती अपनी कविता बेचना
मेरी एक नेक सलाह मानो
कविता गढ़ना बंद कर दो
पहले तो बहुत कुछ छुटा तुमसे
हृदय भी टूटा तुमसे
अब तो चिल्लाने से खुदा मिलता
काजी का पेट पलता...
लिखता हूँ कविता...
त्याग में आनंद होता
मुख खिला-खिला होता
तुम कितने भी शुभ मुहूर्त देख लो
यहाँ तुम्हारी दाल ही नहीं गलेगी...
उनकी चलती है गुटबाजी
उनकी चलती है लूटबाजी
उनकी ही किताबें
उनकी ही पत्रिका
उनके ही कवि
उनके ही रवि..
पगला.. उन रवि के सम्मुख
(मात्रा की गलती..रवि की जगह कवि लिखना था)
तेरे जैसे दीपक का क्या जलना...
खुद ही लिखा कर
खुद ही अपनी पीठ ठोका कर
ज्यादा उड़ना अच्छा नही
गरूड़ पुराण पढ़ने वाला पंडित
क्या सच्चा होता...?
लिखने वालो ने लिख दिया..
सच्चाई कभी भी खाक नहीं होती..
जीवन जीने के लिए आग की जरूरत होती...
लिखता हूँ कविता
तुम जगाओगे तो देश जागेगा
अपने हाथ में झंडा लेकर
बेईमानी को कब तक ढाकेगा
भीष्म नहीं जो प्रतिज्ञा
लेकर जी पाऊँगा
ऊँचे-ऊँचे उन घरौंदों से कोई तो
खि़ड़की से झाँकेगा..
सबको सब मालूम था
सच्च में आंच होती है
बहुत शोर-वोर मच रहा
बेईमानी के ढोलक
गीत ईमानदारी के गा रहे...
लिखता हूँ कविता..