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लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी !

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी !

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सूरज की मद्धम चमक को धुंधला करके

उसको हलके से जैसे छुपा के खड़ी थी।

आँखों के दर्पण में, ख़्वाब के सावन में

यादों को जैसे डुबा के खड़ी थी,

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


जुल्फें हवा संग जो झूमती रही,

कभी स़ुर्ख गालों को भी चूमती थी,

कभी लब से यूँ ही लिपट सी जाती,

कभी दूर जाती कभी पास आती,

की उन उलझी उलझी लटों में,

वो सारा जहॉं उलझा के खड़ी थी ,

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


निगाहों के सागर बड़े ही थे गहरे,

उनही में उठती थी वो मासूम लहरे,

कभी झूमते थे, कभी डोलते थे,

वो चुप थे मगर बहुत कुछ बोलते थे,

वो सब से निगाहे मिला तो रही थी,

मगर खुद से नजरें मिला के खड़ी थी

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


वो लब सुर्ख थे कुछ गुलाबों के जैसे

वो भीगे हुए थे शराबों के जैसे,

उन्ही में बिखरी हुई थी मुस्कुराहट

मगर छोटी सी भी नही थी कोई आहट,

वो कुछ बोलना चाहती थी भी या नहीं,

या हवाओं को सब कुछ बता के खड़ी थी,

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


हवा की वजह से उड़ रहा था आँचल,

या आँचल हिला तो हुई थी वो हलचल,

वो गुल थे तस्सुवर को उसके ही प्यासे,

या लाई उन्हें वो आई थी जहाँ से,

वो खुशबू करीब उसके आई थी उड़के,

या वो खुद ही खुशबू उड़ा के खड़ी थी,

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


वो दो कांच के टुकड़ों से झांकती थी,

मगर कांच थे कि टूटते नही थे,

वो आंखों से भर भर पिला तो रही थी,

मगर जाम थे कि छुटते नही थे,

वो खुद ही पागल सी होने लगी थी,

या ज़माने को पागल बना के खड़ी थी,

लड़की जो ऐनक लगा के खड़ी थी।


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