क्यों नर ऐसे होते हैं?
क्यों नर ऐसे होते हैं?
कवि यूँ हीं नहीं विहँसता है,
है ज्ञात तू सबमें बसता है,
चरणों में शीश झुकाऊँ मैं,
पर क्षमा तुझी से चाहूँ मैं।
कुछ प्रश्न ऐसे हीं आते हैं,
मुझको विचलित कर जाते हैं,
यदि परमेश्वर सबमें होते,
तो कुछ नर क्यूँ ऐसे होते?
जिन्हें स्वार्थ साधने आता है,
कोई कार्य न दूजा भाता है,
न औरों का सम्मान करें ,
कमजोरों का अपमान करें।
उल्लू जैसी नजरें इनकी,
गीदड़ के जैसा आचार,
छली प्रपंची लोमड़ जैसे,
बगुले सा इनका है प्यार।
कौए सी इनकी वाणी है,
करनी खुद की मनमानी है,
शकुनी फींके पर जाते है,
चांडाल कुटिल डर जाते हैं।
जब जोर किसी पे ना चलता,
निज स्वार्थ निष्फलित है होता,
कुक्कुर सम दुम हिलाते हैं,
गिरगिट जैसे बन जाते हैं।
गर्दभ जैसे अज्ञानी है,
हाँ महामुर्ख अभिमानी हैं।
क्या गुढ़ गहन कोई थाती ये ?
ईश्वर की नई प्रजाति ये?
प्रभु कहने से ये डरता हूँ,
तुझको अपमानित करता हूँ ,
इनके भीतर तू हीं रहता,
फिर जोर तेरा क्यूँ ना चलता?
ये बात समझ ना आती है,
किंचित विस्मित कर जाती है,
क्यों कुछ नर ऐसे होते हैं,
प्रभु क्यों नर ऐसे होते हैं?