कविता चली गाँव की ओर
कविता चली गाँव की ओर
देख समय ने पलटी खायी,
मोबाइल के दर्शन भोर।
साहुकार बंदिश में रहते,
खुले डोलते डाकू चोर।
पहले शहरों में बसती अब,
कविता चली गाँव की ओर।
अखबारों का युग बीता है,
टीवी धुँधले होते आज।
कथा कहानी पुस्तक पढ़ना,
रीत बीत कर बिगड़े काज।
वाट्स एप हर जन हर घर मे,
सन्ध्या बाती जागत भोर।
बची गाँव की कवि चौपालें,
कविता चली गाँव की ओर।
तितली भँवरे जुगनू तारे,
दिखते नहीं शहर में राम।
कोयल मैना गौरैया का
कहो शहर में अब क्या धाम।
कागा दादुर चातक तोते
शहर बसेे ना तीतर मोर।
सूरज चन्द विटप लता संग
कविता चली गाँव की ओर।
पनघट रीते बतिया बीती
घर में घुटती बहुएँ सास।
खातिर मे बस चाय बची है,
मेहमानों में बढ़े निराश।
भैंस बकरिया नहीं शहर में
कविता,गाय बची ना गोर।
रीत प्रीत की संस्कृतियों संग
कविता चली गाँव की ओर...
तुनक तुनक करती तुकबन्दी,
लगि पाबंदी बोल कठोर।
मीठे बोल बोलती जाती,
सरगम संगत गाना जोर।
सबके मनको हरसाती है,
प्रेम सुधा रस में दे बोर।
नमन करे कर जोर कन्हाई
कविता चली गांव की ओर।
सबके मन को लुभा रही है,
दिल में सुइ सी चुभती आज।
बात करे हर पीड़ा हरती,
सबके दिल के बजते साज।
मन्द-मन्द मुस्काकर बोले,
सजी हुई घूँघट पट खोल।
गोरी देखन कविता वाचन
सबके मन मे उठे मरोर....
सारे नखरे रीत रिवाजें
कविता चली गांव की ओर।
