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खंडित मूर्ति

खंडित मूर्ति

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खण्डित मूर्ति

आज का इंसान-ए-आम

इस देश का आवाम-

अभिशप्त है.....

उपासना करने को-

उन चमचमाती मूर्तियों की,

जो खण्डित है-

उस पर भी विडम्बना है तीव्र

कि-जानता है वह-

उनकी दरारों कों;

उन दरारों को अनदेखा ही नहीं करना है उसे

छिपाना भी है.....भरसक....

यह छिपाव है विवशता उसकी गहन.....

यद्यपि प्रतीत होता है कि

यह उसका अपना ही चुनाव है

और पसंद है उसकी-

उन खण्डित मूर्तियों की उपासना ;

किंतु सच यह है कटु...

कि-शौक नहीं.....विवशता है उसकी यह.....

एक प्रलंबित तलाश.....

एक अंतहीन खोज....निरर्थक प्रयास......

जो जारी हैं-

होश संवारने से-होश गंवाने तक.....

कि शायद मिल जाए-

मूर्तियों के इस महाकुंभ में

एक अखंडित-सम्पूर्ण-समग्र-सर्वांगसकुशल मूर्ति....

हर बार की छलना भी,

रोक नहीं पाती है-

उसकी चिर तलाश को....

ज्यों मृग दौड़ता ही रहता है-

मरीचिरा के पीछे...

जलाभिलाशा लिए.... मृत्युपर्यंत....

हर चमकती.....चमचमाती

महान से महानतम...

उज्जवल-धवल मूर्ति से छला जाना ही.....

नियति है, उसकी शायद....

उसी दिवंगत मृग की भंाति।

वह बेचारा-

जिस किसी भी

चमकती-ओजवान-महान

मूर्ति की,

करता है उपासना बड़े यत्न से,

श्रद्धा पूर्वक,

पुश्प-धूप-अगरु-चंदन से ;

कछ ही दिनों में.... क्षणों में... महीनों या वर्शो में

प्रकट होने लगती हैं दरारें-

उसकी,

लुप्त होने लगती है सुन्दरता...

हटने लगत¢ हैं आवरण...

और दर्शित होने लगता है-

भयावह-कटु-विकृत

किंतु नग्न सत्य..

और पुनः भग्न हो जाता है-

उसका स्वप्न....

और टुटकर बिखर जाता है-

आदर्शवादी मन......................

वह अभिशप्त प्राणी-

थक-हार कर,

मन-मार कर

और टूट कर भी,

करने लगता है उपासना-

उन्हीं खण्डित मूर्तियों की ;

जता दिया जाता है उसे-

कि तीखी धार होती है अति

उन खण्डित मूर्तियों के टूटे हुए भागों में....

इस टूटन का असर है ऐसा-

कि- मूर्तियां तो चमकती ही चली जाती है....

किंतु उपासक........?

वह तो टूटता ही चला जाता है....

उसके भीतर का-

क्या-क्या-कैसे और कितना टूटता है-

कौन जाने ?... कौन माने?.....

पलायन ....आत्मदाह......सन्यास.....

अपराध और शायद आतंकवाद भी....

निश्पत्तियां हैं-आदर्शो के टूटन की।

ग्रेग्रोरी पेरेलनान ने गणित से

सन्यास लेकर बेरोजगारी चुनी...............?

आवाम की दशा है-

उस पुत्र की--

जो देखता है.....

अपनी ही मां को व्याभिचाररत....

या अपने ही पिता को गरिमा से गिरते हुए....

या उस शिश्य की--

जेा देखता है अपने ही गुरु को,

आदर्शच्युत होते हुए...

या उस सेवक की--

जो देखता है अपने ही स्वामी को

भ्रश्टाचाररत...

या उस अनुयाई की--

जो देखता है अपने ही नेता को--

स्खलित होते हुए....

या उस इंसान-ए-आम की--

जो देखता है अपने ही भाग्यविधाताओं को............

स्वापमानरत.............सतत.............निरंतर................

एक बच्चा--

बड़े यत्न से,

गढ़ता है...एक मूर्ति...

उस मूर्ति का भी होता है--

विकास.....पुश्पन......पल्लवन....

उस बच्चे के साथ.....विभिन्न रुपों में.....

मां...... पिता..... गुरु.... स्वामी.....

नेता.....इश्ट....अभीश्ट........

वह चमकाना चाहता है खूब--

अपनी इस सुन्दर मूर्ति को.....

फैलाना चाहता है--तेज--चहुंओर....

प्राप्त करना चाहता है-

प्रेरणा...............ऊर्जा.............मार्गदर्शन.....

उस ओजस्वी मूर्ति से......

उसके धवल प्रकाश से होना चाहता है प्रकाशित.........

तभी-एकाएक-प्रकट हो जाती है-

कुरुपता........ अचानक.....

और झलकने लगती हैं-दरारे;

धूमिल होने लगता है-प्रकाश....

और वह.....

मूक-बेबस-आवाक-हतबुद्धि......

न निगल पाता है-न उगल पाता है

इस भंयकर-कटु यथार्थ को.....

ज्यों सांप के गले में छछूंदर।

खण्डित-मूर्ति-उपासना,

त्याज्य है उसके हृदय को,

दिल पर नियंत्रण है दिमाग का......

और दिमाग पर छाया है भय.....

इस भय का उत्स है कायरता....

और वह कायर है.....

क्योंकि-वह आम है.......

इस देश का आवाम है.....

जन सामान्य है........।

वह दिल की गहराईयों से

घृणा करता है-

खण्डित मूर्तियों से.....

झूठे आर्दशों से....

उससे भी अधिक घृणा है उसे-

खण्डित - मूर्ति - उपासना से....

उससे भी बढ़कर घृणा है उसे-

उनकी दरारों को छिपाने के कर्म से.....

किंतु फिर भी-

उसे करनी है उपसना

और भरनी है दरारें

उन खण्डित मूर्तियों की....

वह डरता है.....

डरता ही रहता है......

क्योंकि--

यह डर ही उसकी पहचान है !

वह इंसान-ए-आम है !!

और यही आम...

पूरा हिन्दुस्तान है !!!


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