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जिंदगी

जिंदगी

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ज़िन्दगी फलसफ़ा नहीं हक़ीकत है

सवालों से परे अंतहीन इंतज़ार की तरह

हर पल कितना कुछ घटता है

अंदर बाहर

हर पल कुछ छूटता जाता है

हमारी साँसों की तरह

कहाँ ले पाते हैं वही अपनी छुटी हुई सांस दोबारा

कहाँ जी पाते हैं बिता हुआ दिन

रोज़ रोज़ कहाँ मिलता है

एक बीत हुआ जिया हुआ दिन

सम्बधों के बदलाव में कितना कुछ उलझा रहता है

सुलझाने की कोशिश एक लाचारी भर

कितना भी कुछ करो जीवन छूट ही जाता है

कितना भी कुछ करो और उलझ जाता है कोई दूसरा सिरा

छूटे हुए कुछ बेकार के प्रसगों में

जो ख़ाली बीयर की बोतल सी घर के किसी कोने में लुढ़की पड़ी होती है

सुबह फिर उठाकर मुंह से लगा लेते हैं

आख़री बूँद के लिए जैसे उसी में सब कुछ बचा था

या बचा होगा शायद

घूटा हुआ सा उबाऊ सा अजीब सा जो कुछ कुछ बचा रह जाता है

क्या

सच तो यह है अब जानना भी नहीं चाहते

क्या फ़र्क पड़ता है

कितना भी कुछ कर लो

जो छूट गया सो छूट गया

कहा होता या न कहा होता

वैसा किया होता या ऐसा किया होता

जाने दो क्या फ़र्क पड़ जाता

जाने दो न अब इन बातों में क्या रखा है

जाने दो

जैसा था ..... था

जैसा है ...... है

सांस लेना और सांस छोड़ना
एक शाम है

दूसरी अदद शाम की तलाश और इंतज़ार

जो गुज़रती जाती है हर शाम की तरह

किसी के इंतज़ार में

तमाम उम्र किसी का इंतज़ार करना और उसका लौट आना भी कोई मायने नहीं रखता

जहाँ बजती है

तन्हाई में बेग़म अख्तर और फरीदा खानम की ग़ज़ल

जिसे सुनते हुए फूट फूट कर रोना

और नहीं जान पाना कि किस बात पर रो रहे हैं

सवाल बरक़रार है

दरअसल जिदंगी तंग गली और खुला आकाश है .........


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