जानवर की जुबान
जानवर की जुबान
आज का मौसम कुछ बदला हुआ सा है,
हवा में ताज़गी और पानी में शालीनता है,
लग रहा है इंसान धरती से जुदा सा है,
देखो आज का इंसान कुछ डरा हुआ सा है।
चलो देख कर आते हैं, ये इंसानी आत्मा
कहां खो गई है,
कल तक थी जो खून की प्यासी
आज अचानक कहां सो गई है।
कुछ बदला हुआ सा तो है,
क्योंकि शहर में जानवरों का पहरा सा है,
शायद कोई तो हमारी आवाज़ बनकर
इस धरती पर पधारा है,
और इंसानी चेहरो पर मुखौटा लगा आया है।
कल तक पिंजरों और छूरी से दबाने वाले,
आज छुप बैठे हैं घरों पर लगा ताले,
जाने कहां चले गए हैं इस धरती पर
अपना हक जताने वाले।
जिसके पास जब ताकत आई
उसने अपनी हसरत दिखाई,
आज जब खुद पर आई तो
मुंह पर चुप्पी सी छाई।
देख ओ इंसान, खुद को
इस धरती पर महान समझने वाले,
आज हम जानवरों ने भी
तोड़ दिये पिंजरों के ताले।
मत करना गुरुर आज के बाद कभी
अपनी ताकत पर,
देखा ना कुदरत के विराट रूप को,
कैसे शहरों में आफ़त आई।
जाने कहां इंसानी आत्मा खो गई,
दूर खड़ी एक नन्ही मुर्गी और बकरी
बस यही कहकर रो दी,
दिल तो हमारा भी सहम गया
जब एक माँ ने अपना लाडला खो दिया।
