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हिदायतें

हिदायतें

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किसी रोज बिस्तर ठीक करते वक़्त,   

मेरी ही लापरवाही का नतीजा,    

वो फ़िजूल ख़र्च से बचा

फ़िजूल सिक्का,

जो मेरी करवटों मे खो सा गया था,

खनक कर ज़मीन पे गिरा तो,

मैंने बेमन से उसे कमरे की

गंदी शेल्फ को सुपुर्द कर दिया।

वहाँ जहाँ मकड़ी की जालें हैं,

कुछ बेमन से लिखी नज़्म के मलवे,

एक भयावह किताब,

कुछ जूठी कागज़ी तस्तरी,

और जले-बुझे ख़्वाबों की राख़,

जहाँ रौशनी भी छन के

क्षीण हो जाती है,

वो सिक्का जाने कितने अरसे से,

बोझिल मन, पनीली आँखें,

फीकी सी उम्मीद टिकाऐ

टकटकी बाँधे, शून्य में

ताकता रहा होगा।

 

आज वो “खोटा” सिक्का,

जो महीनों से मुंतज़िर बैठा था,

फकीर के कासा मे खनका तो

मुझे कितनी दुआओं का तोहफा दे गया।

 

तुम भी ऐसे सिक्के

किसी ताख पे सहेजा करो,

मुफ़लिसी के दिनों मे बहुत काम आऐंगे।

तुम मेरी बात समझ रही हो न। ।

 


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