हैं कई लोग मगर राह बस अकेली है
हैं कई लोग मगर राह बस अकेली है
है कई लोग मगर राह बस अकेली है
जीत या हार हो इसको तो एक पहेली है
गुज़रते वक़्त में गुज़रे कई कदम इस पर
पर इसके पास ना साथी ना एक सहेली है
इसकी आॅंखों ने कई दौर-ऐ-ज़मां देखे है
बीते हर वक़्त के मिटते वो निशाँ देखे है
न किसी ताज ना मोहताज से शिकायत की
न किसी थक चुके राही से एक शरारत की
कितने दर और दरख्तों को बिखरते देखा
कितने फूलों को यूँ बाग़ों से बिछड़ते देखा
कई सपने जो टूटते कई बनते देखे
कई पैगम्बरों के वक़्त बदलते देखे
ना तो रोई ना ये हंसी ना बुदबुदाई कुछ
ना अपने हाल पे खुल के ये खिलखिलाई खुद
ना बिछाये कभी कांटें किसी की राहों में
इसका ये सब्र भी मुझको तो एक पहेली है
रोज़ चलता हूँ कदम चंद मैं उन राहों में
फिर भी तन्हा हूँ मैं वो राह भी अकेली है
गुज़रते वक़्त में गुज़रे कई कदम इस पर
फिर भी ये राह मगर आज तक अकेली आज
