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गज़ले

गज़ले

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एक अजब सी दुनिया देखा करता था 
दिन में भी मैं सपना देखा करता था 
एक ख़यालाबाद था मेरे ख्वाबों में 
ख़ुद को मैं शहज़ादा देखा करता था
सब्ज़ परी का उड़नखटोला हर लम्हा 
अपनी जानिब आता देखा करता था 
उड़ जाता था रूप बदल कर चिड़ियों के 
जंगल,सहरा,दरिया देखा करता था 
हीरे जैसा लगता था इक इक कंकर 
हर मिटटी में सोना देखा करता था 
कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानों में 
हर सहरा में दरिया देखा करता था 
हर जानिब हरियाली थी, खुशहाली थी 
हर चेहरे को हँसता देखा करता था 
बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं  
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था 
आँख खुली तो सारे मनाज़िर ग़ायब हैं 
बंद आँखों से क्या क्या देखा करता था 

ग़ज़ल (५)

नींद पलकों पे धरी रहती थी 
जब ख्यालों में परी रहती थी 
ख़्वाब जब तक थे मिरी आँखों में 
दिल की हर शाख़ हरी रहती थी 
एक दरिया था तिरी यादों का
दिल के सहरा में तरी रहती थी 
कोई चिड़िया थी मिरे अंदर भी 
जो हर इक ग़म से बरी रहती थी 
हैरती अब हैं सभी पैमाने 
यह सुराही तो भरी रहती थी
कितने पैवंद नज़र आते हैं 
जिन लिबासों में ज़री रहती थी
क्या ज़माना था मिरे  होंटों पर 
एक इक बात खरी रहती थी 
एक आलम थे मिरी मुठ्ठी में 
कोई जादू की दरी रहती थी 

ग़ज़ल (६)

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में 
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में 
जी रहा हूँ और दुनिया में मगर 
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में 
इस ज़मीं पर तो नज़र आता नहीं 
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में 
रोज़ आता है मीरा ग़म बाँटने 
आसमां से इक सितारा ख़्वाब में 
मुद्दतों से मैं हूँ उसका मुन्तज़िर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में 
क्या यकीं आ जाएगा उस शख्स को 
उस के बारे में जो देखा ख़्वाब में 
एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी 
देख लेता हूँ मैं क्या क्या ख़्वाब में 
अस्ल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या 
देखता हूँ क्यूँ तमाशा ख़्वाब में 
खोल कर आँखें पशीमां हूँ बहुत 
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में 
क्या हुआ है मुझ को आलम इन दिनों 
मैं ग़ज़ल कहता नहीं था ख़्वाब में 


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