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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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देख रहा है दरिया भी हैरानी से 
मैंने कैसे पार किया आसानी से 

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ 
कुछ रिश्ता है मेरा बहते पानी से 

हर कमरे से धूप हवा की यारी थी 
घर का नक्शा बिगड़ा है नादानी से 

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ 
डर लगता था बचपन में वीरानी से 

दिल पागल है रोज़ ही ठोकर खाता है 
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से 


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