ग़ज़ल
ग़ज़ल
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कहीं पर निशाना कहीं पर नज़र थी
ज़फ़ाओं को तेरी जो उसको खबर थी
कहो चांद से अब ना झांके जमीं पर
नहीं वो मुहब्बत जो पहले इधर थी
ख़िजा़ओं के मौसम हवाओं में हिद्दत
यूं हिज़्राँ की रातें खरी दोपहर थी
शनासा नहीं कोई लंबा सफ़र था
गुमे नक्श सहरा में मुश्किल डगर थी
ख़ला में उतर कर रहेगा वह इक दिन
यही गीत को आस बस उम्र भर थी
