ग़ज़ल
ग़ज़ल
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जो बच गऐ थे क़त्लगाहों से।
वो मर रहे हैं अपनों की कराहों से।
क्या पता पागलपन ठीक हो जाऐ,
चलो उलझें उन पागल निगाहों से।
मौज की खोज में बरी मुज़रिम
ज़ुर्म कब साबित हुआ है गवाहों से।
ज़ुल्फ़ें उसकी चिढ़ने लगती हैं,
जब भी बात की उसकी निगाहों से।
गालियाँ बकते हुऐ सोचते हैं हम,
क्या हासिल हुआ पिछले चुनावों से।
आपकी वजह से मर रहे हैं लोग
बाज़ आइये इन क़ातिल अदाओं से।
कुछ नऐ हों तो दीजिये मुझको,
जी भर गया है पुराने घावों से।
