एकलव्य
एकलव्य
पर जीवन-लीला नहीं थी अति-भारी
बचपन से ही शांत, गम्भीर
धनुर्विद्या में कुशल एवं निपुण
द्रोणाचार्य को अपना गुरु माना
सीधे लक्ष्य पे साधा निशाना,
ना ध्यान भटका ना मन, दिखे सिर्फ मीन के नयन
बुद्धिशाली बालक में ना था कुछ कम
परंतु गुरु द्रोण ने तोड़ा उसका मन
द्रोणाचार्य ध्रृतराष्ट्र के वचन से बद्ध
लड रहे थे मन के अंदर युद्ध,
कह डाला जो ना कहना था,
एकलव्य के ह्रदय में तीर चलाना था-
सिर्फ राजकुमारों को ही शिक्षा देनी है
तुम्हें नहीं सिखा सकता, बस यही परीक्षा देनी है
एकलव्य-बालक था शालीन
गुरु की आज्ञा मानी,
और अपने पथ में हुआ विलीन
उसी आश्रम में बनाया गुरु का पुतला
हुआ अभ्यास में लीन
लक्ष्य अचूक देखकर गुरु रह गए दंग
सोचने लगे कि इसकी धनुर्विद्या का नहीं कोई सानी
ये तो सबको पीछे छोडने वाला है
कौरव-पांडव का लगता जैसे काल है,
बंधे वचन से गुरु ने कहा-
जो सीखा है तुमने मुझसे तो दो दक्षिणा
काटो तर्जनी और दो अंगूठा दान
कृतज्ञ रहूंगा में, जो मिले मुझे ये नगीना
हंसते हंसते एकलव्य ने एक क्षण बिना रूके
किया आज्ञा का पालन, नहीं की अवमानना
काट के अंगूठा, दी द्रोण को गुरुदक्षिणा।
ऐसे महान बालक को साक्षात प्रणाम है...!