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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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एक शाम अकेली सी

एक शाम अकेली सी

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ऐ शाम , 

तुम कहां जा रही हो 

अकेली अकेली , चुपचाप।

देखती नहीं कि 

तुम अभी जवां हो 

कमसिन हो, नादां हो 

घोर अंधेरा हो रहा है 

रास्ता भी सुनसान सा है

आज मौसम बड़ा बेईमान है 

दिल में जागे उसके अरमान हैं 

वो तुम्हारा रास्ता रोक लेगा तो ? 

सरेराह छेड़खानी करेगा तो ? 

तुम अकेली क्या करोगी 

सूरज भी नहीं है तुम्हारे साथ 

चांद की भी निकली नहीं बारात 

फिर किस का थामोगी तुम हाथ 

मौसम की नीयत खराब लग रही है

उसकी आंखों में वासना दिख रही है

कुछ आवारा बादल भी घूम रहे हैं 

आते जाते बिजलियों को छेड़ रहे हैं 

सन्नाटा भी पीछा कर रहा है 

उसका भी मन छेड़ने का कर रहा है 

इन दुष्टों से कैसे खुद को बचाओगी 

सुनो, लौट जाओ, नहीं तो लुट जाओगी 

जमाना बड़ा खराब आ गया है 

और तुम पर बला का शबाब आ गया है 

यूं रात मैं घर से ना निकला करो तुम 

दिन के उजाले में ही निकला करो तुम. 


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