ए धरा, तू इतनी अशांत क्यों है?
ए धरा, तू इतनी अशांत क्यों है?
ऐ धरा, तू इतनी अशांत क्यों है,
हाँ मानती हूँ कितना कष्ट है तेरे कण कण में,
हाँ विष घुल गया है तेरी हर धड़कन में,
ना जाने इतना बदल गया इंसान क्यों है
बता ना धरती माँ तू इतनी अशांत क्यों है।
हाँ याद है मुझे जब तेरी गोद में फसलें लहलहाती थीं,
ठंडी सुहावनी हवा हर मन को शीतल कर जाती थी
गाँव हो या शहर हर जगह का बच्चा-बच्चा मुस्काता था,
तेरी सम्पन्नता देख खुशहाली के गीत गाता था
तेरी संपन्नता से ही मेरा देश सोने की चिड़िया कहलाता था,
लेकिन न जाने आज तेरी संपन्नता में लग गया पूर्णविराम क्यों है,
अब मैं समझी हूँ मैं ए धरा, तू इतनी परेशान क्यों है??
हाँ मैं मानती हूँ आज हर कोई एक दूसरे का दुश्मन है
और देश का नेता अपनी जेब भरने में निपुण है।
देश के देश लड़कर तबाह हो रहे हैं,
एक-दूसरे पर बम गिरा कर लड़ाइयाँ लड़ कर तेरी मिट्टी को ही बंजर कर रहे हैं
और अपने ही हाथों से खुद की और अपने बच्चों के भविष्य को तबाह कर रहे हैं।
हाँ आज मैं समझी हूँ, तू इतनी परेशान क्यों है और तेरा मन इतना अशांत क्यों है।
तेरे मन की शांति के लिए मैं हर रोज एक पेड़ लगाऊँगी,
कोशिश यह करूँगी कि तेरे कण-कण में रौनक लाऊँगी,
ऐ धरती माँ, अपनी माँ की तरह तेरी सेवा करते जाऊँगी,
कोशिश यही होगी कि तेरे चित्त को मैं शांत कर पाऊँगी,
और तेरी भलाई की बातें मैं दुनिया को बताऊँगी।
एक बार फिर से तेरी मिट्टी को और अपने देश को सोने की चिड़िया बनाऊँगी।