दिवागति
दिवागति
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यह लाल दिव्य सूरज का रंग,
खुल गए प्रकृति के सभी अंग,
हो गई भोर शुभ पूरब से,
आभा फूटी रवि मूरत से।
पंछी गाएँ जब मधुर तान,
सुर छंदों में आ गई जान।
जीवन के लालन पालन को,
पंछी उड़े नव डालन को।
रख कर हल निज कंधों पर,
दे ठोक ताल भुजबन्धों पर,
बैलों की जोड़ी के संग,
पहुंचा किसान हल जंगों पर।
कुछ बालकगण निकले एक गली,
अब खेलन को अगली-पिछली,
सब भूल गए वो भेद भाव,
तेरा मेरा और जाट पात।
एक साधु चला जा पहुंचा मन्दिर,
न झांक सका अपने अंदर,
क्या पा गया..?क्या खो दिया..?
यह देख सदाचित्त रो दिया।
एक नाव चली डगमग जल पर,
एक वृद्ध खड़ी निर्जन मग पर,
एक बोझ पड़ा चिंतित मन पर,
उपकार किया किसने जग पर?
यह देख मेरा भर आया मन,
आग लगी भीषण तन मन,
पहने आडम्बर का चोंगा,
इस मानव मन में,क्या होगा?
यह जग सारा रज मिथ्या है,
सुलभ मनुज तन भिक्षा है,
सत्कर्मों की व्याप्त प्रतिष्ठा है,
यही 'राकेश' की इच्छा है।
इस नश्वर जग वसुधा तल से,
कुछ जाएगा न सखा संग,
ख़तम यहीं इहि लीला होगी,
और बिखर जाएंगे अंग-प्रत्यंग।