बूदें बारिश की
बूदें बारिश की
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आज बारिश क्या बरसी कि
यादों के सारे लिफाफे व चिठ्ठियाँ
जाने कहां से खुलने लगीं।
कागज़ की रंग बिरंगी कश्तियों
को साथ साथ पानी मेंं तैरा देने
की शरारत का मन होने लगा।
एक ही छाते में चलने पर
एक दूसरे की उंगलियों को
गलती से छू लेने का मन करने लगा।
अंजुली मेंं बारिश की बूदों
को बटोर कर, एक दूसरे पर
उछालने का मन करने लगा।
चाय की प्याली से उठते धुएं
के पार नज़र बचा के एक दूसरे से
नज़र मिलाने का मन करने लगा ।
सुनो, आज इस मौसम मेंं
उस सूखे पेड़ की याद आ गई
जो पत्रविहीन, निर्जीव सा
आंगन में खड़ा रहता था
कोपलों के इंतजार मेंं।
याद आ रही है
उस किसान की
जिसका बस चलता
तो बारिश को जाने न देता
और उस कुम्हार की
जिसका बस चलता
तो बारिश को आने न देता।
कुछ तो बात है इन
बारिश की नन्हीं नन्हीं बूदों मेंं
भूली बिसरी बातों को
हर बार याद दिला देती हैै ।
कुछ तो कशिश है
इस बारिश के मौसम मेंं
न चाहते हुये भी
किसी की याद दिला ही देती है।