अस्तित्व
अस्तित्व
जन्म हुआ जो मेरा
क्यों मन तेरा द्रवित हो जाता है
समाज का दूजा स्तंभ हूं मैं,
मेरे बिना ऐ पुरुष,
तेरा अस्तित्व कहाँ रह जाता है...?
अपने ही दो बच्चों में भेदभाव तू करता है,
लड़की हूं तो क्या प्रतिभा नहीं,
जो चार दीवारों में मुझको रखता है,
तेरी भी गलती नहीं, बाहर एक और वर्ग बैठा है ..
मुझमें इंसान नहीं, शरीर के हिस्से वो देखा करता है...
कर दिया जाता है कमतर समझ,
ब्याह के नाम पे एक रकम के साथ समझौता,
पहले भी पराया धन अब और
पराया सा अपना अस्तित्व लगता है...
अपनी पूरी दुनिया छोड़
तेरा घर संजोने मैं आती हूं,
मां को दिया देवी का दर्जा,
मुझपर फिर क्यों हुकूमत तू चलाता है....
मांग बैठूं कहीं अपना अधिकार मैं,
बड़बोली, बदलिहाज मैं कहलाती हूँ,
न कुछ बोलूं तो चुपचाप सहती जाती हूँ,
कमजोर नहीं हूं मैं, सशक्त हूँ, आज की नारी हूँ...
हर बार बस अपनी ही भावनाओं से हारी हूँ,
कोमल, करुणामयी प्रेम के सागर में बहते हुए,
इस मतलबी दुनिया में फूलों की एक क्यारी हूँ..
हर दर्पण समाज का यही कह जाता है...
कि मेरे बिना तेरा कहाँ कोई रिश्ता भी रह जाता है..
कि ऐ पुरुष, तेरा अस्तित्व ही कहाँ रह जाता है.......!!
