अस्तित्व ही जब मेरा....
अस्तित्व ही जब मेरा....
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अस्तित्व ही जब मेरा
शून्य है
हश्र भी जब मेरा
न्यून है।
शून्य अस्तित्व
और न्यून हश्र
फिर मन में
कैसा ये प्रश्न?
नश्वर तो मैं हूँ ही
फिर कैसी ये फिक्र?
अरे कोशिश में लगा हूँ
भले ही हार का ही स्वाद चखा हूँ।
तो फिर,
क्यों न अमरत्व का पान कर लूं मैं
क्यों न जीत का स्वाद चख लूं मैं
क्यों न गिर गिर कर फिर से उठ लूं मैं
क्यों न मानवता पर फक्र कर लूं मैं..
दासता मुझे खुदा की भी स्वीकार नहीं
असफलता से डर कर भागना भी मुझे अंगीकार नहीं।
नहुष मानव ही था जिसने इंद्र सिंहासन को हिला दिया
भागीरथ मानव ही था जिसने गंगा को भी धरा पर उतार लिया।
