अनवरत!
अनवरत!
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ख्वाहिशें सोने की हिरण सी
हम फंस ही जाते हैं लोभ में
फिर होती है शुरू अनगिनत
कोशिशें इससे मुक्त होने के, पर
हम उलझते जाते हैं इस व्यूह में
एक के बाद एक ख्वाहिश
पूरी होने की कामना के साथ
जीवन संतप्त हो जाता है
इच्छाओं की ये मकड़जाल
हमें उन्मुक्त जीने देती नहीं
एक मृगतृष्णा सी रहती है सदा
और इसके पीछे भागते हम
थक हार जाते हैं किसी मोड़ पर
थम जाते हैं किसी पड़ाव पर
और खुद को हवाले कर देते हैं
एक दूसरे अनजाने सफर के लिए
जो चलता है अनवरत ,अनवरत !