Raghav Batra

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4.9  

Raghav Batra

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अंत की शुरुआत

अंत की शुरुआत

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खुले आसमान की परछाईं में 

प्रदूषण की रजाई में 

मेरा शरीर जब शहर के लिए

पहला कदम उठाता है

तभी दिमाग में एक ख्याल

चमचमाता है 


की क्या है वो चीज़ जो इंसान

और इंसानियत दोनों को भाता है 

पैसे ने इंसानियत खरीदी

अभिपोषण ने इंसान 

संतुलन बनाते बनाते हुआ आम

आदमी परेशान 


कुछ ने भगवान को श्रेय दिया

अपने मान का 

अपनी आन बान और शान का 

और कुछ ने समाज को दोषी ठहराया

अपने पाप का 

अपनी जलन, ग्रहण और दुर्व्यवहार का 

इससे समय अंत की ओर आ रहा

इस संसार का



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