क्यूँ
क्यूँ

1 min

345
यह एक सुनहरी चांदनी रात की बात है
मैं खुले आसमान की ओर अपनी नज़रे
टिकाये बैठा था दिमाग में अनेक सवालों
की पंचायत लगाए बैठा था
कैसे, कब, कहाँ मेरे पास हर तरीके का
सवाल था
इतनी भीड़ देख दिमाग में मच गया बवाल था
कोने में देखा तो एक सवाल अपनी दुनिया
में खोया था
समाज के अत्याचार देख खून के आँसू रोया था
क्यूँ था ये सवाल
क्यूँ है इतनी नफ़रत चारों ओर क्यूँ है
इंसान ऐसा
क्यूँ जी रहे हम ज़िन्दगी ये क्यूँ हर जगह अब
छाया था मेरे मन में मायूसी लाया था
अब इंतज़ार ही लग रहा इस सवाल का
जवाब था अभी तक जिंदगी जी रहा था
जैसे कहीं का नवाब था