अनकही
अनकही
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वह कहता था
वह सुनती थी
जारी था एक खेल
कहने सुनने का
खेल में थी दो पर्चियाँ
एक में लिखा था ‘कहो’
एक में लिखा था ‘सुनो’
अब यह नियति थी
या महज़ संयोग
उसके हाथ लगती रही
वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’
वह सुनती रही
उसने सुने आदेश
उसने सुने उपदेश
बंदिशें उसके लिए थीं
उसके लिए थीं वर्जनाएं
वह जानती थी
कहना सुनना नहीं हैं
केवल हिंदी की क्रियाएं
राजा ने कहा ज़हर पियो
वह मीरा हो गई
ऋषि ने कहा पत्थर बनो
वह अहिल्या हो गई
प्रभु ने कहा घर से निकल जाओ
वह सीता हो गई
चिता से निकली चीख
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी
वह सती हो गई
घुटती रही उसकी फरियाद
अटके रहे उसके शब्द
सिले रहे उसके होंठ
रुंधा रहा उसका गला
उसके हाथ कभी नहीं लगी
वह पर्ची
जिस पर लिखा था - ‘कहो’
