अन्ध्यवनिका
अन्ध्यवनिका
*अन्ध्यवनिका* का फैला है चारों ओर प्रकोप
श्रेष्ठता ही मापक है,वर्ण व्यवस्था पर जोर
लोगों में दहशत है,वर्ग व्यवस्था का दोष
कोई श्रेष्ठ है कोई निम्न, कैसा है यह लोक
नेता सारे खा रहे,बाँट लोगों का गोश्त
फैल रही असमानता है ,कैसा है यह मृत्यु लोक
किया प्रयास कबीर ने, जो रहा अफसोस
अफसोस का कारण,कुछ लोगों का आक्रोश
*मानव खण्डित* रह गया ,रहा न उसमे जोश
धार्मिकता के अंत से हो रहा विस्फ़ोट
नए ढंग से नए समाज का,करना हो यदि गठजोड़
अन्ध्यवनिका की परतंत्रता का देना हो यदि सिर फोड़
तो प्रयत्न को *पूर्ण मनुष्य* का, ऐसा हो प्रकोष्ठ
पूर्ण मनुष्य वही है,जो करे देश की सेवा
बदल दे समाज को,रहे तब भी प्यासा
असमानता को दूर करे ,ऐसी हो अभिलाषा
सत्व गुण में निमग्न रहे,ऐसा हो वह ज्ञाता
होगा तभी मानव समाज का प्यारा
*अन्ध्यवनिका : मति भ्रम का पर्दा
*मानव खण्डित: दया,ममता, प्रेम से रहित
*पूर्ण मनुष्य : जिसमे दया,ममता,समानता का भाव हो