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" अब कैसे रहा जाय "

" अब कैसे रहा जाय "

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आकर देना होगा समय को
समाज की अनुगूँज के साथ ,
कैलेण्डर बदलने से सदियाँ नहीं बदलतीं
अब समय को लूँगा आड़े हाथ,
जिस समय में पगलाये फिर रहे हैं
वह समय और समाज के धड़कनों की उपज है
समय की टकराहट और बदलाव की आहट सुननी होगी,
जब कर्ता - धर्ता हम ही हैं 
तब चोट हमें ही सहनी होगी,
अनिश्चितता का वातावरण छाया हुआ है
हर पल है अनहोनी का दर
मानसिक  तैयारियाँ  पीछे छूटती जा रहीं ,
दुनिया भावनाओं को रौदतें बढ़ती जा रही ,
एक अनजाना भय 
इस वक़्त की सबसे बड़ी त्रासदी है । 

 


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