आइना
आइना
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आइना
अब छपने लगे हैं किताबों में
चर्चाएं होने लगी है बाजारों में
कल रिसाला माँगेगा हम से कविता
जो हमारी पसंदीदा हो और
कोई अखबार भी चिपकाएगा
हमें किसी पन्ने पर ......
समाज रचना के साथ
रचनाकार को भी पढ़ता है
अब एक स्तम्भ जा रहे बनने
हमें दर्पण बनना है समाज का
आओ , स्वयं को देख लें जरा
एकबार आईने में
इससे पहले हमारी कृति पर
उठाए जाएं सवाल
आओ ढूँढ लें मिलकर जवाब
कल को कोई ये न कहे
लिख तो रहे कविता
फिर भी क्यूं नहीं समझते
कविता की आत्मा को
कविता के मौन को
कविता की भाषा को
हाँ, अब हमें बदलना होगा
बनना होगा हमें
एक उत्कृष्ट आईना
जिसमें स्पष्ट देख सके हमें समाज
और साफ कर सके धूल
सदियों पुरानी जमी है
इससे पहले हम खारिज किए जाएँ
आओ ! देख लें आईने में
स्वयं को एक बार
गोबिन्द
