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मृत्युमूल्य

मृत्युमूल्य

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कुबेरपुर के गिरीश प्रसाद स्थानीय महाविद्यालय में प्रोफेसर थे। गोरा रंग, सुंदर चेहरा और लंबा कद। शेर जैसी चौड़ी छाती और नाक के नीचे छोटी-छोटी मूँछें बड़ी अच्छी लगतीं। खेती और बाग-बगीचे कई गाँवों तक फैले हुए थे। घर में खूब धन-धान्य था। कहीं कोई कमी न थी। गिरीश बाबू तीन भाई थे। मंझले भाई उमाशंकर भोपाल में व्याख्याता थे तो छोटे भाई मध्य प्रदेश में ही एक कारखाने में नौकर। गिरीश बाबू की पत्नी नीलिमा देवी बहुत ही कुलीन, मृदुभाषिणी और विचारशील महिला थीं। रूप-रंग ऐसा कि जो भी देखे, देखता ही रह जाए। इसके विपरीत एक सुयोग्य अध्यापक होते हुए भी प्रोफेसर साहब रीति-अनरीति और यश-अपयश से कोसों दूर रहते। समाज की फिक्र बिल्कुल भी न थी। जैसे भी हो, धनार्जन का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। कर्म-अकर्म को तनिक भी महत्व न देते। उनका मत था कि यह दुनिया बहुरंगी है। अच्छा करने पर भी लोग आलोचना करने से नहीं चूकते। फिर अनौतिक और खराब काम तो बुरा है ही। लोगों का काम बस, कहना है। लोग क्या कहते हैं, उसे क्या सुनना? जो अंतरात्मा और विवेक कहे, उसे ही करने में भलाई है। क्योंकि आज के जमाने में निर्धन को कोई पूछता भी नहीं है। गरीबी और अभावपूर्ण जीवन भी क्या कोई जीवन है? धनाढ्य, संपन्न और सामर्थवान का आदर सभी करते है। कदाचित उनमें दोष आ जाने पर भी उसे कोई दोषी नहीं मानता। इसलिए मनुष्य के जीवन का उद्देश्य दौलतमंद बनना होना चाहिए। पर,उनके विचारों से नीलिमा देवी कदापि सहमत न होतीं। बात-बात पर विवाद हो जाता। तकरार बढ़ने से मन मुटाव और अन बन बनी रहती। एक पुत्र और दो पुत्रियां होने पर भी पति-पत्नी उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों की तरह सदैव अलग-अलग ही रहते। कभी एक साथ रहने को तैयार ही न होते। पतिदेव की तृष्णा देखकर नीलिमा मन में कुढ़ती रहती थी। कभी-कभी मौका पाकर प्रोफेसर साहब को वह समझाती कि मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मात्र धन संग्रह ही नहीं होना चाहिए। यह दुनिया हमारी कर्मभूमि है। हम सब यहाँ सद्कर्म और नेक कार्य करने आए हैं। मानव जीवन सुकर्मों से सफल है। उलटे-सीधे कार्य तो कोई भी कर सकता है। पर, सभ्य और शिक्षित व्यक्ति को प्रेरणादायी और अनुकरणीय भले कार्य ही शोभा देते है। उसे अनैतिक और अपयश वाले कार्यों से सदा दूर रहना चाहिए।

प्रोफेसर साहब की दोनों बेटियों की शादी हो गई। वे ससुराल जाकर अपनी-अपनी गृहस्थी संभालने लगीं। गिरीश बाबू का इकलौता बेटा राजकुँवर बड़ा ही पितृभक्त और आज्ञाकारी था। बहुत ही सुंदर, विनीत और सभ्य भी। बिल्कुल माँ की तरह गोरा, बाँका और सजीला जवान। प्रोफेसर साहब और नीलिमा उस पर जान छिड़कते। लेकिन, पति के आचार-विचार से नीलिमा इतनी व्यथित रहती कि वह पुत्र पर पति की परछाईं भी न पड़ने देना चाहती थी। उनकी मंशा थी कि जहाँ तक हो सके उनका बेटा, बाप की सोहबत से दूर रहकर सुशिक्षित, नैतिक और सदाचारी बने। कुलदीपक बनकर खानदान का नाम रोशन करे। इसलिए हृदय पर पत्थर रखकर राजकुँवर की शिक्षा-दीक्षा के लिए कलेजे के टुकड़े को अपने देवर उमाशंकर के पास भोपाल भेज दीं। राजकुँवर अपने चाचा के पास रहकर अध्ययन करने लगा। बड़ा शीलवान और होनहार लड़का था। सुसभ्य और संस्कारवान तो था ही। पढ़ाई पूरी होते ही एक दिन उमाशंकर उससे बोले-हमने अपना फर्ज़ पूरा किया। अब तुम बड़े और योग्य हो गए हो। कोई काम-धंधा तलाशकर जीविकोपार्जन शुरू करो। अपने पैरों पर खड़े हो जाने पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। समय का मूल्य समझकर आगे बढ़ो। तुम्हारे आत्मनिर्भर बनने से परिवार को आर्थिक मदद मिलेगी। घर में सुख-समृद्धि आएगी। यह सुनकर राजकुँवर बोला- चाचाजी आप ठीक कहते हैं लेकिन, जल्दबाजी में कोई छोटी-मोटी नौकरी करके जीवन बर्बाद न करूँगा। एम.काम. की डिग्री लेकर यह कदापि न होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमसे आपका मन भर गया और मुझे बोझ समझ रहे हो। उसकी बात सुनकर उमाशंकर के दिल को बड़ी ठेस लगी। वह तीर बनकर उनके सीने में चुभने लगी। पर, सँभल कर संयम के साथ बोले-अरे पगले, क्या तुमने हमें पराया समझ लिया? मेरा मकसद तो बस यह था कि अच्छी नौकरी खोजते-खोजते अन्य युवकों की भाँति कहीं ऐसा न हो तुम न घर के रहो और न घाट के और ओवरएज हो जाओ। आजकल एक से एक शिक्षित और पात्र नौजवान सड़कों की धूल फाँकने पर विवश हैं। कुछ भी न करने से कुछ करना ही अच्छा है। कोई छोटा-मोटा काम करते हुए अच्छी नौकरी तलाशते रहना। प्रतियोगिता और साक्षात्कार में सफल होकर विकास की सीढ़ी चढ़ते जाओ। वक्त की यही जरूरत है। कॉलेज में दूसरे युवाओं की तरह राजकुँवर को भी आधुनिकता की हवा लग चुकी थी। मां-बाप के सहारे विलासिता का जीवन जीने वाला लड़का महँगाई और बेरोजगारी का सही अर्थ न जानता था। दीन-दुनिया से एकदम अनभिज्ञ था। रात-दिन हवाई महल बनाने के ख़्वाब देखता। हक़ीकत से अनजान राजकुँवर कोई कार्य करने को तैयार ही न था।

एक रोज़ वह बड़ी आत्मीयता के साथ उमाशंकर से बोला- चाचाजी, अम्मा और बाबूजी को हमसे बड़ी उम्मीद है। उनके भी दिल में कुछ अरमान हैं। उनके अपने सपने हैं। एक बार उनसे पूछ लेने दीजिए। मैं आपको वचन देता हूँ। पित्राज्ञा का पालन जरूर करूँगा। अपनी मनमर्जी करके मैं उन्हें कोई कष्ट नहीं देना चाहता। मन की बात आदमी के मुँह से अनायास ही निकल जाती है। लेक्चरार साहब सोचने लगे- कितनी अजीब बात है? आटे का चिराग घर रखूँ तो चूहा ले जाए, बाहर रखूँ तो कौआ ले जाए। आजकल के युवकों को समझाना बड़ी टेढ़ी खीर है। अत: वह भतीजे पर कोई दबाव न डालना चाहते थे। वह युवकों की मानसिकता और उनके उलटे-सीधे कामों से भलीभांति परिचित थे। उनके सामने आगे कुंआँ तो पीछे खाई वाली स्थिति हो गई। लाचार होकर खिन्न मन से बोले- ठीक है, पूछ लो उनसे। वे कोई न कोई अच्छा रास्ता ही सुझाएंगे। तुम उनकी सलाह अवश्य लो। तुम पर मुझसे अधिक उनका अधिकार है। इसके बाद राजकुँवर अपने मम्मी-पापा से मिलने उनके पास चला गया। युवा और पात्र पुत्र को देखकर पति-पत्नी बड़े खुश हुए। उनकी बांछें खिल गर्इं। राजकुँवर ने पिता का चरण-स्पर्श किया तो वह गदगद होकर आशीर्वाद देते हुए बोले- युग-युग जीओ और अफ़सर बनो। मैं तुम्हें एक बड़े हाकिम के रूप में देखने के लिए लालायित हूँ। अब तुम कहीं साहब बन जाओ बस। यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है। बेटे, तुम मेरी दिली तमन्ना का अंदाजा नहीं लगा सकते कि आज मैं कितना प्रसन्न हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम अब किसी काम-धंधे से लग जाओ। मैं तुम्हारा विवाह आदि करके छुटकारा पाऊँ। हमें भी एक न एक दिन रिटायर ही होना है। आठ-दस साल और बचे हैं। बुढ़ापा चैन से कट जाएगा। तब नीलिमा देवी ममत्व के साथ राजकुँवर के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली-बेटा, एक बात ध्यान रखना। आज तुम्हारे जैसे बहुत से हुनरमंद युवक साहब बनने के फेर में नौकरी से बेचित होकर खाली-पीली इधर-उधर खाक छानते फिरते हैं। अच्छी और सरकारी नौकरी ढूँढने के चक्कर में उम्र निकलते ही वे काबिल होते हुए भी अयोग्य हो जाते हैं। इस बेरोजगारी के युग में जो हाथ वही साथ। जैसी भी मिले पकड़ लेना। छोड़ना मत, अच्छी की कोशिश बाद में करना। क्योंकि, न जाने कितने ही युवा महँगाई और बेरोजगारी से तंग आकर बड़ा आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर हैं। यह कतई ठीक नहीं है। असफल होने पर मैदान छोड़कर भागना कायरता है। हमने कलेजे पर पत्थर रखकर तुम्हें इतने दूर भेजकर पढ़ाया-लिखाया है। बेटा, एक बार कुविचारों में उलझ जाने पर फिर सँभलना बड़ा मुश्किल है। तब राजकुँवर उन्हें सांतवना देते हुए बोला-माँ, आप ये कैसी बातें कर रही है? मैं आपका बेटा हूँ। मुझे मालूम है कि आत्महत्या करना बड़ा पाप है। आप बेफिक्र रहें। मैं ऐसा कोई कदम न उठाऊँगा जिससे कुल में कोई दाग लगे। मुझे आपके माथे पर कलंक का टीका नहीं लगाना। इस प्रकार जब भी समय मिलता माता-पिता उसे ऊँच-नीच समझाने लगते।

कुछ दिन बाद राजकुँवर पुन: अपने चाचाजी के पास चला गया और एक कारखाने में सहायक मैनेजर के पद पर काम करने लगा। पर, वह उसी में उलझकर रह गया। उसकी सारी इच्छा धरी की धरी रह गई। इतनी फुर्सत ही न मिलती कि कहीं दूसरी नौकरी के लिए प्रार्थना-पत्र भी दे सके। वहाँ वह एक बँधुआ मज़दूर बनकर रह गया। यदि उमाशंकर कभी उसे समझाने-बुझाने का प्रयास करते तो कहता- चाचाजी, मैं वहाँ से बार-बार छुट्टी नहीं ले सकता। किसी अन्य काम की भागदौड़ के लिए मेरे पास बिल्कुल भी वक्त नहीं है। यह सुनकर लेक्चरार साहब घायल पक्षी की तरह मन मारकर रह गए। समय तीव्रगति से पंख लगाकर उड़ता रहा। आहिस्ता-आहिस्ता कई वर्ष गुजर गए। अगर कभी राजकुँवर के विवाह की कहीं बात चलती तो लड़की वाले साफ कह देते- भाई, महँगाई का जमाना है। इस मामूली सी तन्ख्वाह में दोनों का गुज़र-बसर न होगा। वे टका सा जवाब देते कि ऐसे कर्महीन लड़के को हम लड़की कदापि नहीं दे सकते। खेती-बाड़ी का कोई भरोसा नहीं। कभी सूखा-अकाल आता है तो फसल कभी बाढ़ की भेंट चढ़ जाती है। बनिये की नौकरी का क्या ठिकाना कि कब निकाल बाहर करे। हम यह जोखिम उठाकर लाडली बेटी का जीवन बर्बाद थोड़े ही कर सकते हैं। दुनिया में एक से बढ़कर एक लड़के हैं। उनकी बात सुनकर प्रोफेसर दंपति का चेहरा उतर जाता। वे असह्य पीड़ा का अनुभव करते। जिगर के टुकड़े को न नौकरी मिलती और न कोई छोकरी ही। वे मजबूर थे, कुछ कर न सकते थे। विवशता उनके चेहरे पर साफ झलकती। विनीत और सुशील बेटा जवानी की दहलीज पर जो खड़ा था। नीलिमा कई बार सोचती कि- बेटे की प्रगति में शायद पति-कर्म आड़े आ रहा है। वरना, मेरे लाडले की सौभाग्य को ऐसा पाला कभी न मारता। अब तो भई गति साँप-छछूँदर जैसी। मेरे अनमोल रत्न को न जाने किसकी नजर लग गई। यदि प्रोफेसर महाशय कोई नेक काम करते तो आज यह दुर्दिन न देखना पड़ता। आखिर, पुत्र अपने पिता के सत्कर्मों से ही फूलता-फलता है। इनका पाप मेरे बेटे को उड़कर लग रहा है। पर, मैंने तो कभी कोई अनौतिक कार्य न किया। फिर भी न मालूम क्यों मेरा लाल दर-दर की ठोकरें खा रहा है।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। नौकरी के लिहाज से राजकुँवर के अयोग्य होने में बस, डेढ़-दो वर्ष ही बाकी रह गए। जवान बेटे की दुर्दशा देखकर प्रोफेसर साहब के दिल में बड़ा शोक होता। वह बार-बार यही सोचते कि मेरी सारी मनोकामना खटाई में पड़ती दिखाई दे रही है। पिता अपने पुत्र का उद्धारक और रक्षक होता है। एक मैं हूँ कि बेटे का पतन होता हुआ देखने को विवश हूँ। वह कितना कष्ट और कितनी पीड़ा झेल रहा है। अब बचे ही कितने दिन हैं? इधर मैं सेवा से रिटायर होऊंगा, उधर मेरे कलेजे का टुकड़ा जीवन भर के लिए कुपात्र बन जाएगा। इस उम्र में ही उसके सिर पर कितना बड़ा बोझ है? हमारी आशाएं मिट्टी में मिलती दिखाई दे रही हैं। अपने जीते जी मैं उसकी यह बर्बादी कैसे देख सकता हूँ? उसकी परेशानी देखकर लोग कल को फब्तियां कसेंगे। उसकी खिल्ली उड़ा कर हमारे आत्म-गौरव पर कुठाराघात करेंगे। परिवार की सारी मान-प्रतिष्ठा खाक में मिल जाएगी। बना-बनाया घर तबाह ओर बर्बाद हो जाएगा। मन में यह विचार आते ही प्रोफेसर उदास हो जाते। उनके हृदय की धड़कन तेज़ हो जाती। वह निराशा के भवसागर में डूबने-उतरने लगते। उन्हे भाँति-भाँति की आशंका घेर लेती। उनका चेहरा मलिन हो जाता। तब ऐसी विदीर्ण स्थिति में मेरे जीवन का क्या अर्थ और मूल्य रह जाएगा? मात्र अफसोस करने के सिवा हाथ कुछ भी न लगेगा। मेरे लाल का जीवन निरर्थक व्यतीत हो, यह मेरे लिए जीते जी मरने के समान होगा। मैं इतना निर्बल और असहाय बनकर नहीं जी सकता। यह मेरी सहनशक्ति से बाहर है। मेरे इस जीवन को धिक्कार है। आख़िरकार, मानव जीवन का कुछ मूल्य तो होना चाहिए न? तभी मनुष्य के जिंदगी की कोई सार्थकता है। यह सोचकर वह इतने चिंतित हुए कि पत्नी के साथ-साथ घर-परिवार से भी कटे-कटे से रहते। उनका दमकता हुआ कांतिमय चेहरा बीमारों जैसा कांतिहीन दिखाई देने लगा।

उन्हें इस तरह उदास देखकर नीलिमा देवी ने एक दिन उनसे पूछा-अजी सुनिए, मेरा मन तो नहीं कहता कि आपसे कोई सवाल करूँ पर, फिर भी यदि मैं पूछ रही हूँ तब बिल्कुल साफ-साफ बताइए। मेरी कसम कुछ छिपाइए मत। मैं जैसी भी हूँ, आपकी पत्नी हूँ। आप मेरे पति-परमेश्वर हैं। हमारे कर्म और विचार नहीं मिलते इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सुनकर प्रोफेसर साहब बात को टालने की गरज से पहले कुछ इधर-उधर की हांकने लगे पर, नीलिमा देवी की आत्मीयता भरी ज़िद के आगे उन्हें समर्पणभाव से कुछ झुकना पड़ा। मायूसी भरे अंदाज़ में बोले- नीलिमा, मैं तुम्हारे जैसे उच्च आदर्शों वाला तो न बन सका और न ही तुम्हें अपने रंग में रंग सका। किंतु, युवा बेटे की दीन-दशा देखकर अब अहसास होता है कि मैं संसार का सबसे बड़ा पापी हूँ। मेरा जीवन व्यर्थ है। कभी-कभी सोचता हूँ कि जब पुत्र अपने बाप के लिए प्राण न्यौछावर कर देते हैं तो मौका आने पर पिता अपने बेटे के लिए प्राणों की आहूति क्यों नहीं दे सकता? आजकल वैसे भी भौतिकता की अंधी दौड़ में बेटे-बहुओं से तंग आकर बुजुर्ग मां-बाप दर-दर की ठोकरें खाते हुए घुट-घुटकर जी रहे हैं। इसलिए मेरी जिंदगी सार्थक न हुई तो न सही। मैं इकलौते बेटे के कल्याण और तुम्हारी खुशी के लिए कुछ न कुछ अवश्य करूँगा। सच कहता हूँ, मेरे बेटे को कामयाबी भी मिलेगी और तुम्हें चिंतामुक्ति भी। मेरी मृत्यु फलदायी साबित होगी। मेरी जीजीविषा अब समाप्त हो चुकी है। जितनी जल्दी हो सके, मैं इस जग से कूच करना चाहता हूँ। यह सुनते ही नीलिमा को मानो काठ मार गया। वह एकदम सन्न रह गर्इ। हक्की-बक्की सी इधर-उधर देखने लगी। पति के शब्दों से वह बड़ी आहत हुई। उनका हृदय कचोट उठा। वह बड़ी उलझन में पड़ गई। समझ में न आ रहा था कि क्या करें। वह दुविधाग्रस्त हो गर्इ। कातर नेत्रों से देखती हुई सँभल कर बोली -मैं आपकी बात से कतई सहमत नहीं हूँ। न जाने क्यों आप सदैव मेरी इच्छा के विपरीत ही बोलते हैं। क्या मौत से भी आज तक किसी का भला हुआ है? आज ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं? एक अध्यापक को इतनी भावुकता शोभा नहीं देती। शिक्षक तो राष्ट्र का भविष्य निर्माता है। एक आप हैं कि विनाश की बात कर रहे हैं। इससे लोगों में क्या संदेश जाएगा? वे क्या सोचेंगे? शिक्षक जैसे सुधारक को समाज के साथ इतना अन्याय नहीं करना चाहिए। लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है। चलिए, चलकर किसी अच्छे डॉक्टर से चेक करा लीजिए। आपकी यह उदासी मेरे लिए असह्य है। इस उम्र में खुद को इतना कमजोर क्यों समझ रहे हैं? आपके किसी उलटे-सीधे कदम से मेरा जो होगा, सो होगा ही। खानदान पर भी बड़ा अमिट कलंक लगेगा। इससे हमारा जीवन और भी कष्टमय हो जाएगा। मेरा निवेदन है, अपने विचारों की इस संकीर्णता को त्याग दीजिए। दिक्कतों का अटल होकर सामना कीजिए। तकलीफ़ और मुसीबत से डरकर भागना कायरता है। इससे हमें बड़ा अपयश लगेगा। लोग तरह-तरह का दोषारोपण करेंगे।

तब प्रोफेसर साहब बोले- नीलिमा, मेरी बात सुनो- जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री होती है, उसका स्वार्थ और लोभ भी उतना बड़ा होता है। मानो यही विद्वानों के लक्षण हैं। मैं अपनी आँखों के सामने सब कुछ तहस-नहस होते नहीं देख सकता। तुम यश-अपयश और मान-अपमान की फ़िक्र न करो। मैं ऐसा कुछ भी न करूँगा। पुत्र मोह में विषपान करके मैं अपनी जीवन लीला थोड़े ही करूँगा। किंतु, क्या तुम नहीं चाहती कि बेटे की जिंदगी मिट्टी में मिलने से बच जाए। दुनिया से सबको एक न एक दिन रफूचक्कर होना ही है। इसलिए यह अंत का बिगड़ना नहीं, उसका निर्माण है। मेरा संपूर्ण जीवन नीरस और कठोरता के साथ ही गुजरा है। क्योंकि मनुष्य कमजोरियों का पुतला है। इसलिए नौबत यहाँ तक आ गई कि मैं हमेशा तिमिरलोक में ही भटकता रहा। सच्चा ज्ञान तो मुझे अब मिला है। मैं जो काम जीते जी न कर सका, उसे मर कर पूरा कर सकूँ तो यही मेरे लिए सभी पापों का सबसे बड़ा पश्चाताप होगा। क्या यह संतोष की बात नहीं कि अब अपने ही जीवन से मुझे घृणा सी हो गई है। आत्मग्लानि से रह-रहकर कलेजे में टीस उठ जाती है। हमे किसी की उलाहना या अपनी बदनामी का कोई भय नहीं। यह सुनते ही नीलिमा देवी की आँखें भर आर्इं। कलेजे में उथल-पुथल होने लगी। वह बोलीं- यह ठीक है कि मनुष्य कमजोरियों का पुतला है। पर, अपनी जान का दुश्मन बनना कहाँ तक उचित है? यह कहकर उनके नेत्रों में आंसुओं की नदी उमड़ पड़ी। पल भर बाद बोलीं- आप बड़ा अनर्थ करने की सोच रहे हैं । इतनी बुजदिली भी किस काम की? बेटे को आपकी इस सोच का पता चलेगा तो क्या वह सुखी रह पाएगा? मन में सदैव कुढ़ता रहेगा। लोग उसे जली-कटी सुनाकर ताने मारेंगे। उसके जीवन में एक धब्बा लग जाएगा। उसे बड़ी पीड़ा होगी। उसका संपूर्ण जीवन कष्टमय होकर रह जाएगा। लोगों की छोडि़ए, वे उसे उलाहना देंगे ही। वह अपनी ही नजर में गिर जाएगा। ऐसा मालूम होता है, आपकी अक्ल नष्ट हो गई है। वरना, अपने ही प्राणों के बैरी न बनने की सोचते। उस बेचारी को क्या पता कि प्रोफेसर साहब उनसे मात्र कौशल कर रहे हैं। वह केवल इसलिए मरने के इच्छुक हैं कि उनके स्थान पर बेटे को अनु कंपा के आधार पर नौकरी ज़रूर मिलेगी। वह बेरोजगार न रहेगा। नीलिमा बस इतना ही जानती थीं कि प्रोफेसर साहब तनावग्रस्त और अवसादग्रस्त होकर अपनी जीवन लीला से छुटकारा पाने को ठान चुके हैं। उनका जीवनमोह खत्म हो चुका है।

प्रोफेसर गिरीश एक दिन नीलिमा से बोले- देखो, अवसर से लाभ उठाना ही बुद्धिमानी है। चूक जाने पर पछताने के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता। बाद में समय की निंदा करना व्यर्थ और भूल है। सुनो नीलिमा, तुम मुझे कायर बनाने की कोशिश न करो। मनुष्य को एक न एक दिन यमलोक का रास्ता नापना ही पड़ता है। यहाँ अमर कोई भी नहीं है। यह सुनकर नीलिमा का कोमल मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा। उनके अंतस्तल में अपार वेदना होने लगी। वह उदास मन से बोलीं- अगर जीवन का अंत करने से ही मुसीबतों से मुक्ति मिल जाती तो दुनिया कब की समाप्त हो गई होती। जानबूझकर संसार से आँखें फेर लेना घोर पाप भी है और बड़ा अनैतिक भी। जग की रीति के अनुसार चलना ही अक्लमंदी है। आप गमगीन होकर ऐसा क्यों सोच रहें हैं कि नेत्र बंद होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। प्रारब्ध के लिखे को मिटाना बड़ा ही असंभव है। वाद-विवाद और तर्क-कुतर्क के दलदल में पति-पत्नी को फँसे हुए कई महीने बीत गए। आखिरकार धीरे-धीरे बीमार प्रोफेसर साहब एक दिन खाट पकड़ लिए। दिनो दिन उनकी हालत बिगड़ती गई। हार-थक कर नीलिमा देवी ने उन्हें लखनऊ के एक जाने-माने अस्पताल में भर्ती करा दिया। लेकिन, वह फिर ठीक न हुए। शरीर बिल्कुल पीला पड़ गया। आँखें अंदर को धँस गर्इ। नर्सिंग होम और सरकारी चिकित्सालय के बड़े-बड़े डॉक्टर भी उनकी नब्ज पहचानने में विफल रहे। वह महीनों अचेत पड़े रहे। अंत में प्राण पखेरू उनके बदन का साथ छोड़कर उड़ गए। एक मर्मांतक पीड़ा के साथ एक रात उन्होंने आँखें मूंद ली। दुनिया से नेत्र फेरते ही शरीर ठंडा हो गया। नीलिमा देवी पर मानो ग़म के पहाड़ ही टूट पड़ा। वह पछाड़ खाकर गिर पड़ीं। सुहागन को असमय ही विधवा का जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा। वह मन मारकर रह गर्इं। मृत शरीर के दाह-संस्कार के कुछ दिन बाद राजकुँवर को प्रोफेसर साहब की जगह बाबू गिरी अवश्य मिल गई और एक कुलीन, शिक्षित कन्या से उसका विवाह भी हो गया। गिरीश बाबू न रहे किन्तु उनकी इच्छा जैसे-तैसे पूरी हो गई


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