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दिग्भ्रमित

दिग्भ्रमित

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अरे भाई कौन सा स्टेशन आ रहा है, आगरा कब आएगा, भाई... अरे छोड़ सुनाई नहीं पड़ता इसको शायद, कान में हेडफोन लगाए हुए है। अंकल आप को आईडिया है कौन सा स्टेशन आ रहा है। शायद आगरा, क्योंकि पिछला स्टेशन फरीदाबाद था जिससे चले हुए चार घंटे से ऊपर हो गए है।

आगरा...अभी आगरा ही पहुंचे है,अचानक शरद के मुंह से निकला। वही शरद जो कान में हैडफोन लगाए गाना सुन रहा था। उसे किसी से बात करना पसंद नहीं, खासकर ट्रेन में इन लुंज पुंज से लोगों से जो मुंह में गुटका दबाए रखते हो और हर स्टेशन में कूदकर पूड़ी भाजी और पकौड़ी खाते हो। कितने अनहाईजनिक लोग होते है।

आगरा पहुंच रहे है सात बजे, मतलब ट्रेन एक घंटा लेट है। अभी एक घंटा, त्रिवेंद्रम जाते हुए तो कई दिन लेट हो जाएगी, अचानक उसे कोफ़्त भरी हंसी आई। इस रेनू को भी अभी शादी करनी थी। वो भी त्रिवेंद्रम में, हद है, ऊपर से जून की गर्मी का सितम । 

रेनू, शरद की मौसेरी बहन है। सबसे ज्यादा लगाव भी है और मानता भी बहुत है। रेनू भी फोन पर शरद भैया, मैं आ रही हूं कहती हुई हर छुट्टियों  में लुधियाना पहुंच जाती। और फिर उधम, कभी शॉपिंग, कभी फिल्म देखना, हर सुबह यूनिवर्सिटी के मैदान में सैर के लिए जाना। शरद की बीवी नेहा भी रेनू को अपनी असली ननद ही मानती। वैसे शरद की अपनी बहन भी है पर शादी के बाद वह कनाडा ही सैटल हो गई है, बातचीत भी कभी स्काईप पर तो कभी सीधे आईएसडी कॉल। शरद के बच्चे बंटी और सोना भी रेनू बुआ के पीछे लगे रहते।

शरद की सोच की रेलगाड़ी भागी चली जा थी। रेनू को भी शादी की ऐसी जल्दी थी कि त्रिवेंद्रम में ही कोर्ट  मैरिज कर ली और अब खबर भेज रही है कि भैया एक छोटा सा रिसेप्शन रखा है, प्लीज आ जाओ।परेशानी यह की नेहा के चाचा के लड़के की शादी भी परसो भटिंडा में है। एक तरफ साले साहब, दूसरी तरफ बहन की शादी। तय हुआ कि नेहा बच्चो समेत भटिंडा जाएगी और मैं अकेला सैकेंड स्लीपर नॉन एसी से त्रिवेंद्रम। अरे दो दिन पहले एसी डब्बे में तो रिजर्वेशन मिलेगा नहीं। तत्काल में यह मिल गया, यही गनीमत है।

पर गर्मी का क्या करे। अभी आगरा से ही गाड़ी निकली। सुबह पांच बजे का चला हुआ, दिन भर गर्मी, धूल, बदबू और शाम सात बजे तक सिर्फ आगरा। टाईम टेबल के हिसाब से गाड़ी  परसों शाम को 6 बजे त्रिवेंद्रम पहुंचेगी, अगर लेट ना हो। पर यह तो अभी से ही....ए भाई जरा पैर उधर करना, एक सूटकेस रखना है। शरद का गुस्सा फट पडा, क्यों रखना है, मेरी सीट है, मैं लेटा हुआ हूं। शरद को ललकारते हुए पहलवाल नुमा शख्स ने कहा, क्यों बे तेरे बाप की ट्रेन है। टिकट लेकर पूरे कंपार्टमेंट में लेटेगा क्या?? शरद ने कुन मुना होकर सूटकेस को जगह देने के लिए पैर समेट लिए। कितनी बार उसने अखबार में पढा था कि सहयात्रियों में झगडा हुआ और एक को ट्रेन से नीचे फेंक  दिया। नहीं, ऐसे ही ठीक है। उसने फिर से कानों में हैडफोन लगा लिया ।

हाथ में पाउलो कोहलो की किताब, कान में हैडफोन, पर शरद तो सोचे ही जा रहा था। कितना खुश था जब उसको लुधियाना में एक बड़े निजी बैंक में मैनेजर की नौकरी लगी। पूरे दो साल हो गए थे एमबीए किये हुए। एमबीए नहीं एमबीए फिनांस वो भी जालंधर की सबसे बड़ी निजी यूनिवर्सिटी से। पूरे 6 लाख खर्च हुए थे। पर नौकरी के ऑफर मिल रहे थे पांच हजार महीना, ज्यादा से ज्यादा 8 हजार महीना। एमबीए फिनांस सिर्फ आठ हजार महीना, करनी पड़ी क्योंकि एजुकेशन लोन की किश्ते शुरू हो गई थी। पिताजी भी इतना भर कमाते की पांच लोगों का परिवार चल सके। पिताजी, माताजी, दादी, शरद और छोटी बहन। शादी नहीं हुई। पर लुधियाना में नौकरी मिलने के एक साल में ही उसकी शादी तय हो गई। समय कितनी तेजी से गुजरता है, दस साल हो गए लुधियाना में रहते हुए। या यूं कहे 10 साल हो गए बादशाहपुर छोड़े । अब रोज- रोज तो वहां नहीं जाया जाता, पहले तो फिर भी महीने दो महीने में एक बार, पर जबसे बंटी और सोना हुए तब तो साल में एक बार ही मां बाबुजी के दर्शन हो पाते है।

अचानक एक झटके से पूरी बोगी हिली। अरे क्या हुआ, खिड़की से चिल्लाते हुए उसी पहलवान ने पूछा। हां, जैसे बाहर कोई उसको जवाब देने के लिए बैठा है। करीब आधा घंटा रूकने के बाद ट्रेन दुबारा चलनी शुरू हुई। अरे क्या हुआ भाई, तभी दूर की सीट से आवाज आई, अरे कोई ट्रेन के नीचे आ गया था।

पर शरद इस घटनक्रम से परे अपनी ही सोच में डूबा था। लुधियाना वाले घर में कोई भी अपना नहीं आता। हां कभी कभी रेनू आ जाती। रेनू और शरद की सभी भाई बहनों में सबसे अच्छी पटती थी। सात मौसरे भाई बहन। सब छुटिटयों में इकटठा होते और खूब हुडदंग मचाते। पर रेनू के आते ही पल्टन में जान आ जाती। रेनू भी शरद से अपनी सारी बाते शेयर करती। बताती कि उसका कोई बॉयफ्रेंड है पर मम्मी पापा उसका आना पसंद नहीं करते, कॉलेज का दोस्त है। शादी करना चाहते है पर पापा तैयार नहीं होगें क्योंकि वो मलयाली है। इतनी जल्दी शादी का भी सोच लिया, सोचा क्या, कर भी ली, बताया भी नहीं, अब रिसेप्शन में बुला रही है।

मलयाली है तभी त्रिवेंद्रम में शादी...सोचने का क्रम चलता रहता अगर कुली और चाय चाय् की आवाज से तंद्रा भंग हुई । झांसी, हां यही लिखा था सामने रेल के खंबे में। भूख लग रही थी। सुबह पांच बजे का निकला सिर्फ दो परांठे खाये थे, दिन में खाने का मन नहीं हुआ। टाईमटेबल देखा, झांसी में 10 मिनट रूकती है ट्रेन। चलो उतर कर कुछ खाने को देखा जाए। एक ठेले पर रेलवे का जनता खाना, चार सूखी पूड़ी और तरीदार आलू। दूसरे ठेले में बासी ब्रेडपकोडे और समोसे। सामने रेलवे की कैंटीन, वही पूड़ी सब्जी, सैंडविच, ऑमलेट। भूख में इच्छाएं मर जाती है। अरे भाई एक पूड़ी सब्जी, एक माजा, एक बिसलेरी और एक चिप्स का पैकेट देना। अरे पूड़ी कब की तली है, हां तुम तो कहोगे ही कि अभी 10 मिनट पहले तली थी। दुकानदार ने कोफ्त भरी नजरो से कहा 95 रूपये, और हाथ में एक डब्बा और चिप्स, ठंडा और पानी पकड़ा  दिया। जल्दी से पैकेट संभालकर वापस गाड़ी में बैठ गए। ठंडी पूरी और आलू इस वक्त इतना स्वाद दे रहे थे जैसे वह उसका मनपसंद व्यंजन हो। गाड़ी प्लेटफॉर्म से सरक रही थी। सामने वाली सीट पर एक बच्चा कातर निगाह से उसको खाते हुए देख रहा था। शरद ने भी भोलेपन से पूछा, बेटा  पूड़ी खाओगे, उसके हां ना से पहले उसकी मां बरस पड़ी । रहने दो भैया, अभी इसने खाया है। क्या बाबू, कितनी बार समझाया है कि अंजान लोगो का कुछ नहीं खाते। खुनमुनाते हुए बच्चे ने अपनी मां को देखा और भुनभुनाते हुए शरद सीट की दूसरी तरह मुँह करके बैठ गया। मन में विचार आया कि नेहा ने अब तक खा लिया होगा, फिर याद आया कि अरे वो तो कजिन की शादी में गई है, मजे कर रही होगी। और यहां मैं गर्मी में सड़ी पुड़ियाँ खा रहा हूं।

परसों त्रिवेंद्रम, एक दिन रूक के शुक्रवार को वापसी की ट्रेन। इतवार की रात को वापस घर। खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना, मतलब साला इतनी दूर जाओ और एक दिन रूक कर वापस। पूरे टूर का खर्चा सब मिलाकर 20 हजार जिसमे रेनू के कपड़े और कुछ गिफ्ट शामिल है। एक सोने का सेट भी खरीदा अलग से, बहन है, अभी नहीं दूंगा तो कब दूंगा। रेनू तो कह रही थी कि भैया खर्चा मत करना, बस एक साड़ी गिफ्ट करना, अरे ऐसे अच्छा थोड़े  ही लगता है। रेनू को हमेशा मेरे खर्चे की चिंता रहती थी। जब मैं एमबीए कर रहा था तो वह मुझे कभी मोबाईल भेज देती, एक बार तो लैपटॉप ही दे दिया। मैंने मना किया तो कहा कि अगर मौसाजी देते तो मना करते, समझो उन्होने ही दिया। उसी लैपटॉप में प्रेजेंटेशन बना बना कर, पूरी क्लास में बेस्ट प्रेजेंटेशन मेकर का इनाम जीता था। एक बार पता नहीं कहां से रेनू को पता चला कि मैनें पिताजी से किताबें खरीदने के लिए 5 हजार रूपये मांगें है। उसने पिताजी के नाम से मुझे 6 हजार का मनीऑर्डर भिजवा दिया। जब सच्चाई पता चली तो उसने कहा कि भाई को ही तो दिया है, कोई अहसान थोड़े ही किया है। जब नौकरी लग जाएगी तब वापस कर देना। तो क्या उसकी शादी में सोने का सेट देना गलत है, अब बीवी क्या समझे इस रिश्ते को। सोचते सोचते शरद के खर्राटे पूरे कंपार्टमेंट में गूंजने लगे।

हां भई टिकट, कहां है तेरा टिकट, यह तो गलत डब्बा है भाई, तेरा टिकट तो एस2 का है और यह एस 5 बोगी है। शोर सुनकर शरद की आंख खुल गई। घड़ी में सुबह के चार बज रहे थे। सामने प्लेटफॉर्म के बोर्ड में इटारसी लिखा हुआ था।  क्या मुसीबत है, ना सोने देते है, और उफ यह गर्मी, मुंह फेरकर शरद फिर सोने की कोशिश करने लगा। हा हा हा... जोर जोर से ठहाके और बातों का शोर, आंख पलटकर देखा कि सामने वाले बर्थ में कोई परिवार इसी स्टेशन से बैठा है। अरे यार सोने दो, शरद ने भरराते हुए कहा, हां हां ठीक है ठीक है। अरे चंदा चादर ढंग से बिछा। अरे यह सूटकेस यहां क्यों रखा। शरद ने फिर गर्दन उठा कर देखा पर सामने वाले तो बेपरवाह अपने में ही तल्लीन थे।

अरे भाई यह ट्रेन है ,कोई रिश्ते तो  नहीं जिसमें एक दूसरे का ख्याल रखा जाए। जब शरद ने पहली बार रेनू को बताया कि उसका रिश्ता तय हो गया है तो लगा कि रेनू तो बस मोबाईल फाड़ कर अभी आ जाएगी। क्या नाम है भाभी का, कहां की रहने वाली है, कब मिलने ले जा रहे हो। अरे बस कर रेनू, उनका नाम नेहा है, यही जलंधर की है। और.. रेनू को छेड़ने का मौका मिल गया। उनका नाम "उनका" क्या बात भैया, इतना शर्माना भी ठीक नहीं। ऐसा करते है, मैं अगले हफ्ते आती हूं और भाभी से उनके घर पर मिलती हूँ । तुम्हे आना है तो आओ नहीं तो सिर्फ पता बता दो। और वो सच में नेहा से मिलने अगले हफ्ते जालंधर पहुंच गई। जब बंटी हुआ तो ना जाने क्या क्या उठा कर ले आई, वॉकर, खिलौने, कपड़े , चांदी के कड़े , सोने की छोटी चेन। मना करने पर रूआंसी होकर बोली, ठीक है भाई अगर मैं बुआ होकर अपने भांजे को कुछ नहीं दे सकती तो मैं यहां से जा रही हूं। और सच में उसने अपना सूटकेस उठा लिया। मान मनौव्वत करने के बाद सूटकेस ज़मीन पर उतारा।  

अरे ये सूटकेस किसका है, चलने की भी जगह नहीं, किसी के चीखने की आवाज आई। शरद आधी तंद्रा से उठा कि कहीं उसका सूटकेस तो नहीं। अरे सच में उसी का सूटकेस, पर वो तो सीट के नीचे था, तो यह इतना किनारे कैसे पहुंचा। साइड अपर में सफेद कुर्ते पजामें में लेटा एक पान चबउव्वा बोला, भाईसाहब सूटकेस को चेन से बांधकर रखो, कहीं कोई उडा के ना ले जाए। अरे यही शब्द तो रेनू ने नेहा से कहा था कि मेरे भाई को अब चेन से बांधकर रखना, इतना हैंडसम और स्मार्ट है कि पता चले किसी और लड़की का दिल इन पर आ जाए और इनको उड़ा  कर ले जाए। शरद हँस दिया। ...अरे अजीब आदमी है, एक तो सलाह दो और उपर से यह साहब हँस रहे है, पान चबउव्वा ने खीजते हुए कहा। शरद ने गंभीर होते हुए कहा कि सॉरी, मैं कुछ और ही सोच रहा था।

अरे कौन सा स्टेशन आ रहा है। पान चबउव्वे ने कहा कि नागपुर निकल चुका है, अब तो छोटे मोटे स्टेशन ही आएगें, बड़ा तो अब सीधे वारांगल फिर विजयवाडा है। कहां जा रहे है, शरद ने कहा त्रिवेंद्रम, और आप। कुर्ता छटकते हुए बडे ही स्टाईल में कहा की कोयंबटूर, वहां मेरा साला रहता है। एक हफ्ते वहीं आराम करूंगा, फिर उसे कहूंगा कि रामेश्वर घुमा के ला। घूमने का बहुत शौक है मुझे। वह बोलते जा रहा था पर शरद का ध्यान कहीं और था। घूमने का शौक तो रेनू को भी है। तभी तो ग्रेज्युएशन शिमला से, पोस्ट ग्रेज्यूएशन इलाहाबाद से, नौकरी करी चैन्नई में, फिर वहां से हैदराबाद, बैंग्लौर और अब त्रिवेंद्रम। घर में तो कदम ही नहीं पड़ते ,जब भी लुधियाना आती, एक मिनट भी नहीं टिकती। भाभी यहां घुमाओ, चल बंटी गोलगप्पे खा कर आते है। एक दिन तो बंटी और सोना को बाजार ले गई। सोना तब 2 साल की रही होगी। पहले गोलगप्पे खाये, फिर जूस पिया, फिर मोमोज खाए, फिर ऑमलेट खाया। रात होते होते सोना को उल्टियां शुरू। रेनू तो देखकर रोने लगी। नेहा ने ही समझाया कि अरे रो क्यों रही है, ज्यादा खाने से अपच हो गई है सुबह तक ठीक हो जाएगी।

स्टेशन पर स्टेशन आ रहे थे, पर मंजिल अभी भी दूर थी। कब त्रिवेंद्रम आएगा, रेनू ने क्या नाम बताया था अपने पति का, बस आखिर का श्रीवत्सा ही याद है। जो भी हो, कैसा होगा, फोटो दिखाई थी रेनू ने, पर शक्ल याद नहीं। वैसे भी ज्यादातर दक्षिणी धोती पहनते है। पता नहीं रेनू वहां खप पाएगी। अरे उसको वहां थोड़े ही रहना है। रेनू ने ही बताया था कि श्रीवत्सा अपना ट्रांसफर मुंबई ले रहा है। नौकरी का ऑफर है। रेनू भी वहीं नौकरी देख लेगी। बहुत तेज़  है, घर संभाल ही लेगी वो।

शादी के बाद वो रेनू और उसके पति को लुधियाना आने के लिए कहेगा। छोटा घर है, पर रेनू का दिल बड़ा है, वो अपने श्रीवत्सा को भी समझा देगी। अब शादी तो कोर्ट में कर ली है नहीं तो पूरा प्लान था कि रेनू की शादी का आधा खर्च वहीं उठाएगा। आखिर रेनू ने भी तो उसके खर्चे उठाए थे। कोई बात नहीं, अभी तो बहुत मौके आएगें, लेने देने के, तब कसर पूरी कर दूंगा। वैसे जो सोने का सेट ले जा रहा हूं वो भी 60 हजार का है। मन तो कर रहा था की कंगन और एक चेन भी ले लूं पर सुनार कोई सगे वाला तो है नहीं। जितना बैंक में जमा था, 10 हजार छोड़ कर सब खर्च कर दिया। ठीक है 20 दिन गुजारा कर लेगें इनमें, अब रेनू की शादी है किसी और की थोड़े ही है।

रेल अपनी पूरी रफ्तार से चल रही है, शरद की यादों की रेल भी। दोनो को त्रिवेंद्रम पहुंचने की जल्दी है, रेनू से मिलने की जल्दी है। 

रेलगाड़ी की भी अपनी आवाज होती हैं, अपना संगीत होता है, धुन होती है। धड़क धड़क, खड़क खड़क। रेनू भी जब तल्लीनता में खो जाती थी तो गाना गाने लगती थी – धड़क धड़क, धड़क धड़क सीटी बजाए रेल। किसी भी बर्तन को अपना तबला बना देती थी। और उसकी लय और रेल की लय इस वक्त कितनी मिल रही थी। शरद सो रहा था या उठा हुआ था पर इतना खोया हुआ था कि रेल कहां रूक रही कहां चल रही पता ही नहीं चल रहा था। रात को बर्थ में ऊपर लेटे लेटे तो वैसे ही पता ही नहीं चलता कि रेल चल रही है या रूकी हुई है। सुबह होने को आई थी। हल्की हल्की रौशनी सामने वाली खिड़की से छन कर आ रही थी। सामने वाली बर्थ वाले पान चबव्वा से पूछा "आपका कोयंबटूर आने वाला होगा। टाईम टेबल के हिसाब से तो 10 बजे कोयंबटूर आएगा"। "क्या साहब आप किस जमाने में रहते है। ट्रैन में टाईम कौन देखता है। टाईम से आना जाना हो तो फ्लाईट करों। ट्रैन में तो आप बस पहुंच जाओ तो बेहतर है, कब पहुंचों यह ना पूछो"। शरद को उसकी बातों से खीझ आ रही थी। "भाई फिर भी बता दो कहां तक पहुंचे है"।  "ट्रैन 14 घंटे लेट चल रही है अभी आधा घंटा पहले विजयवाड़ा से निकले है"। 

कोई बात नहीं, शरद ने सोचा, अगर अभी 14 घंटा लेट है तो हो सकता है बाकी कवर कर ले। अभी शाम तक पहुंचता अब शायद आधी रात तक पहुंचुंगा। रिसेप्शन तो दिन का है। फटाफट रेनू को गिफ्ट वगैरह देकर, खाना खा कर, वापसी की ट्रैन के लिए भागूंगा। सब कुछ कंट्रोल में सोचकर शरद ने राहत की सांस ली और दुबारा इयरफोन लगा कर अपने में खो गया। पउलो कोहलो की किताब ने उसे अपने वश में कर लिया था। दुनिया से बेखबर कभी वो किताब में खो जाता कभी नींद में खो जाता। 

भारतीय रेल भी सभी भारतीयों का बोझ अपने उपर लिए सरक सरक कर चल रही थी। लेट इतना हुई कि जहां शाम सात बजे पहुंचना था पर फिर सांत्वना देने के लिए अगली सुबह तक उम्मीद थी। पर हर भारतीय की उम्मीदों पर कायम यह ट्रेन सुबह क्या दिन के दो बजे त्रिवेंद्रम पहुंची। 

स्टेशन पर ट्रेन के रूकते ही शरद बाहर की तरफ भागा। बाहर निकल कर रिक्शेवाले को व्हाटस अप मैसेज पर रिसेप्शन हॉल का एड्रैस दिखाया। ना शरद को मलयाली आती ना रिक्शेवाले को हिंदी। सड़कों, गलियों, बाजार से निकलते हुए शरद वैंक्टेश्वर हॉल पहुंचा। अंदर पहुंचा, दिल धक्क कर गया। कोई नहीं था अंदर, खाली बिल्कुल खाली, एक आदमी औंधी पड़ी मेज पर सोया हुआ था। उसे उठाकर शरद ने पूछा कि बाकि लोग कहां है। वह समझा नहीं। उसने इशारे से पूछा बाकि लोग कहां है। उसने इशारों से कहा सब चले गए। कहां, पता नहीं। घर का पता मालूम नहीं था। किससे पूछूं रेनू कहां है। उसे रेनू से मिलना था, उपहार देने थे, आर्शीवाद देना था, श्रीवत्सा से मिलना था, परिवार से मिलना था। घडी देखी वापसी की ट्रेन छूटने में सिर्फ एक घंटा बचा था। उसे लगा उसका सिर घूम रहा है। वह सिर पकड़ कर वहीं दूसरी औंधी पडी मेज पर धम्म से बैठ गया।

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