मोहब्बत और औरत
मोहब्बत और औरत
इतिहास में ऐसा क्यों है कि मोहब्बत आदमी ही करता है औरत को बदलने वाली या बेवफा या मजबूर क्यों बताया जाता रहा है कही ऐसा तो नहीं की हमारा समाज पुरुष प्रधान है इसलिए पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जा रही हो या फिर औरत हमेशा से ही अवसरवादी रही है। क्या ये मान लिया जाए की औरत हमेशा से अवसरवादी रही है अवसर के अनुसार ही निर्णय लेती है ।
आखिर क्यों हर प्रेम कहानी में ये दर्शाया गया है कि प्रेमी उसके प्यार में तड़पता रहा और प्रेमिका अपनी जिम्मेदारियों और मजबूरियों में उलझी रही क्या ये मान लिया जाए की औरत सामाजिक मजबूरियों या जिम्मेदारियों के आगे समर्पण कर देती है और पुरुष अपने प्यार को सर्वोपरि रखता है या ये मान लिया जाए औरत सहन करने में पुरुषों से आगे होती है तो वो अपनी भावनाओं को कठोरता से दबा लेती है।
रहा कुछ भी हो लेकिन इतिहास में जिस तरह से कहानियां दर्ज है या तो उनका एक पहलू दिखाया गया है या तो फिर औरत अवसरवादी रही है।
क्यों मिर्जा से कसमें वादे करके साहिब ने आखिर में अपने भाइयों के प्यार के आगे अपने प्यार को क़ुर्बान कर दिया। हीर राँझा की कहानी हो या सोनी महिवाल हर जगह इम्तिहान तो पुरुष को ही देने पड़े कोई देवदास प्यार में पागल कोई बुल्ला यार के लिए गली गली नाच रहा।
कही ऐसा तो नहीं पुरुष प्रधान समाज के ताने बाने ने महिला को इस कदर कमजोर बना दिया कि उसकी स्वतन्त्रता का महत्व ही नहीं रह गया वो बचपन से लेकर जवानी तक इस कदर गुलामी में रहना सिख गयी के जब भी निर्णय लेने की बात आई तो एक अनजाने भय ने उसे विचारों के चक्रव्यूह में धकेल दिया जहाँ से वो चाह कर भी बाहर नहीं आ पाए।
आज के दौर में भी फिल्म गाने सब में एक ही भरमार है बेवफा, दिल तोड़ दिया कभी कभी ही कोई फिल्म आती है जिसमें औरत का पक्ष रखा गया हो।
बात करे पुराने दौर की तो एक राधा कृष्ण की ही कहानी है जिसमें राधा की बजाय कृष्ण आगे बढ़ गए थे बाकी सबकी कहानी वही है।
मेरी जिज्ञासा सिर्फ ये जानने में है कि क्या सचमुच औरत अवसरवादी है या फिर जो हमारे समाज का विकृत सा ताना बाना है कहीं न कहीं उसने औरत की भावनाओं, स्वतन्त्रता का दमन किया है
कहने को हम राधा कृष्ण हीर राँझा के किस्से सुना सुना कर खूब मोहब्बत की तरफदारी करते है लेकिन जब यथार्थ में हमारा सामना समाज से होता है तो हम समझ जाते है कि कोई फायदा नहीं मोहब्बत जैसी फिजूल बातों का।
एक तरफ हम मोहब्बत की पैरवी करते है वही दूसरी तरफ हम उस माहौल को पनपने नहीं दे सकते कैसी विडंबना है आखिर किस समाज का निर्माण किया है हमने।
कहने को मैं खुद बड़ी बड़ी बात करता हूँ बेशक लेकिन जब यथार्थ से मेरा सामना हो तो मुझे भी पता है क्या करना है..
एक बुद्दिजीवी होने के नाते एक बात समझ से परे है एक तरफ हम इतिहास में पढ़ाते है मोहब्बत से बड़ा कुछ नहीं मिशाल देते है फिल्म में मोहब्बत की जीत पर तालियां बजाते है राधा कृष्ण के प्यार की मिसाल देते है हीर राँझा पर पवित्र भजन बनाते है नाटक का मंचन होता है लोग जिसे चाव से देखते है पढ़ते है मोहब्बत पर आधारित फिल्म सुपरहिट होती है युवा वर्ग ही नहीं सबी उम्र के लोगो को मोहब्बत पर आधारित फिल्म पसंद आती है बड़ी उम्र वाले भी मोहब्बत पर फिल्म देखकर भूतकाल में गोते लगाते है दूसरी तरफ हम कही भी प्यार का माहौल नहीं पनपने दे सकते आखिर ये किस तरह के समाज का निर्माण किया है आज तक मानव ने।
मेरी मंशा ये नहीं है कि पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी जाए समाज में हर किसी को मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूँ के आखिर ग़लती कहा हो रही है एक तरफ मोहब्बत करने वालो को हम पूजते है दूसरी तरफ ये एक बहुत बड़ा गुनाह है।
आज मैं अगर युवा हूँ तो मोहब्बत की पैरवी करूँगा समाज को कोसूंगा लेकिन कल जब मैं समाज का हिस्सा हो जाऊँगा उम्रदराज हो जाऊँगा और फिर मेरे परिवार या मुझपर बात आये तो मैं फिर समाजिक मान मर्यादा की बात करूँगा मैं सिर्फ इस पीढ़ी की बात नहीं कर रहा हूँ हमेशा से यही होता आ रहा है अगर ठीक से बात करो देखो तो तुम्हारे आस पास ही कोई दीवाना बूढ़ा मिल जायेगा जो तुम्हें अपनी जवानी के किस्से सुनाएगा लेकिन अब जब वो बूढ़ा हो चुका है तो औरों की मोहब्बत उसके लिए गुनाह है। लेकिन ये उनकी ग़लती नहीं है वो समाज का हिस्सा है और इस सामाजिक ताने बाने में उन्हें इसे गुनाह की दृष्टि से ही देखना पड़ता है।
मैं किसी को गलत नहीं बोल रहा हूँ सब अपनी जगह सही है लेकिन इतिहास से ये समझने की कोशिश कर रहा हूँ की ये कैसा सामाजिक ताना बाना है जहां हमें एक उम्र में वकालत और दूसरी उम्र के पड़ाव पर उसे गुनाह की तरह देखना पड़ता है।।