सिरहाने तकिये के नीचे से !!!
सिरहाने तकिये के नीचे से !!!
सिरहाने तकिये के नीचे से,
जब नींद..
साथ छोड़े फिसल जाती है.
जैसे मेरी उंगलियों से,
तेरी जुल्फें,
हाथ छोड़े फिसल जाती हैं..
तब पीछे रह जाती है
एक रात…
बहुत मायूस,
बहुत बे-मुकम्मल
बेतरतीब, बेहया,
बेकदर, बेअसर..बंजारी,
बिखरी हुई सी ये रात…
ये रात,
संग संग चलती है,
एक अनचाहा,
मुक़द्दर बन के..
ये रात,
लपेटे हुए है मुझे,
तंग, मैली सी एक,
चद्दर बन के..
हर रोज लड़ता हूँ,
शब-ए-कालिख से..
फिर हार कर,
करवटें बदल लेता हूँ..
नींद सजाती हैं हर रोज,
मेरा बिस्तर,
मैं लड़कर,
सिलवटें बदल देता हूँ..
इसी जंग-ओ-जदल में,
फिर एक बार,
सोने की उम्मीद कहीं रह जाती है..
इन्हीं सिलवटों के किनारे से,
कोई नदी बन कर,
नींद कहीं बह जाती है..
और पीछे रह जाती है,
तो बस ये रात..
ये रात..
बहुत मायूस,
बहुत बे-मुकम्मल
बेतरतीब, बेहया,
बेकदर, बेअसर..बंजारी,
बिखरी हुई सी ये रात.